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________________ ४६१ -५.९५] भावप्राभूतम् करणगुणस्थानं (९) सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानं (१०) उपशान्तकषायगुणस्थानं (१३) १० सक्षमसाम्पराय-जहाँ केवल संज्वलन लोभका सूक्ष्म उदय रह जाता है उसे सूक्ष्म-साम्पराय कहते हैं। अष्टम गुणस्थान से उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी ये दो श्रेणियाँ प्रकट होती हैं। जो चारित्र मोहका उपशम करने के प्रयत्नशील हैं वे उपशम श्रेणी में आरूढ होते हैं और जो चारित्र मोहका क्षय करने के लिये प्रयत्नशील हैं वे क्षपक श्रेणी में आरूढ होते हैं । परिणामों की स्थिति के अनुसार उपशम या क्षपक श्रेणो में यह जीव स्वयं आरूढ हो जाता है, बुद्धिपूर्वक आरूढ नहीं होता। क्षपक-श्रेणी पर क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही आरूढ हो सकता है परन्तु उपशमश्रेणीपर औपशमिक और क्षायिक दोनों सम्यग्दृष्टि आरूढ हो सकते हैं। [यहाँ विशेषता इतनी है कि जो औपशमिक सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणी पर आरूढ होगा वह श्रेणी पर आरूढ होनेके पूर्व अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर उसे सत्ता से दूर कर द्वितीयोपशमिक सम्यग्दृष्टि हो जायगा।] जो उपशम श्रेणी पर आरूढ होता है वह सूक्ष्म-साम्पराय गुणस्थानके अन्त तक चारित्र मोहका उपशम कर चुकता है और जो क्षपक श्रेणी पर आरूढ होता है वह चारित्र मोह का क्षय कर चुकता है। ११ उपशान्तमोह-उपशम-श्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान में चारित्र मोहका पूर्ण उपशम कर ग्यारहवें उपशान्त मोह गुणस्थान में आता है। इसका मोह पूर्ण रूप में शान्त हो चुकता है और शरद ऋतु के सरोवर के समान इसकी सुन्दरता होती है अन्तमुहवं तक इस गुणस्थान में ठहरने के बाद यह जीव नियम से नीचे गिर जाता है। . १. आगम में आचार्य मत-भेदकी अपेक्षा द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि को मोह कर्म की २८ और २४ प्रकृतियों की सत्ता वाला बतलाया गया है जो अनन्ता. नुबन्धी की विसंयोजना करता है उसके २४ प्रकृतियों को सत्ता रहती है और जो अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना नहीं करता है उसके २८ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस पक्षमें द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन का लक्षण यही रहता है कि जो उपशम सम्यक्त्व क्षयोपशम-सम्यक्त्व के बाद हो वह द्विती. योपशम सम्यक्त्व है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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