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३३० षट्प्राभूते
[५.४६निजभृत्येन बन्धयित्वा सिंहरथं राज्ञे अर्पयामास । जरासन्धस्तु तुष्ट्वा निजसुतां देशाधं च ददौ । वसुदेवस्तु तां कन्यां दुष्टलक्षणां दृष्ट्वोवाच-देव ! नाहं सिंहरथं बद्धवान्, कर्मेदं कंसः कृतवान्, भवत्प्रेषणकारिणेऽस्मै कन्या प्रदीयतां । तत्श्रुत्वा जरासन्धः कंसस्य कुलं विज्ञातु मन्दोदरी प्रति दूतं प्रजिघाय । त दृष्ट्वा मन्दोदरी मम पुत्रः किं तत्रापि कृतापराध इति भीत्वा समंजूषा तत्र जगाम । जरासन्धाने मंजूषां निक्षिप्य इयमस्य मातेत्युवाच । देव ! 'कसमंजूषामधिष्ठायाऽर्भक आगतो यमुनाजले मया लब्धः प्रतिपाल्य बधितश्च तत एव नाम्ना कंसः कृतः । अयं स्वभावेन शौर्यर्पिष्ठः शिशुत्वेऽपि निरर्गलः पश्चादुपालंभशतैर्लोकानां मया वजितः । तत्थ त्वा मंजूषायाः पत्रं गृहीत्वा उच्चचियामास । उग्रसेनपद्मावत्याः सुतं विज्ञाय सुतामधराज्यं च तस्मै विततार । कंसोऽपि जातमावोऽहं नद्यां प्रवाहित इति क्रोधेन मथुरापुरं स्वयमादाय मातरपितरौ बन्धस्थी कृत्वा गोपुरे धृतवान् । विचारविकलाः पापीयांसः कुपिताः किं किं न कुर्युरिति । अथ वसुदेवं महीपतिं पुरमानीय निजानुजां देवकी दत्वा तत्र तं स्थापितवान् महाविभूतिमन्तं तं चकार एवं सुखेन कंसस्य काले गच्छति सत्येकदाऽतिमुक्तको
__ कंस ने भी 'मुझे उत्पन्न होते ही इन्होंने नदी में बहा दिया था' इस क्रोधसे मथुरापुरो आकर तथा स्वयं माता-पिताको बन्धन में डालकर गोपुर के ऊपर रख दिया सो ठीक ही है क्योंकि विचार-हीन पापी मनुष्य क्रुद्ध होकर क्या क्या नहीं कर बैठते हैं ? तदनन्तर कंसने राजा वसुदेव को अपने नगर लाकर उन्हें अपनी छोटी बहिन देवकी दी तथा उन्हें वहीं रखकर महा विभूति से युक्त कर दिया। इस प्रकार कसका समय सुखसे बीत रहा था कि एक दिन अतिमुक्तक नामका मुनिराज भिक्षाके लिये राजभवन में प्रविष्ट हुए उन्हें देख हर्षित होती हुई जीवद्यशा ने हास्य भावसे कहा कि मुनि ! देवको नामक तुम्हारी छोटो बहिन अपना यह ऋतु-कालीन वस्त्र तुम्हें दिखलाती है और अपनी चेष्टा को प्रकट करतो है। वह सुन मुनिने क्रोध करके तथा वचन-गुप्तिको तोड़कर कहा कि मूर्खे ! क्यों हर्षित होती है, देवकी का जो पुत्र होगा वह तेरे भर्ताको अवश्य मारेगा। यह सुन जीवद्यशा ने उस वस्त्रके दो टुकड़े कर दिये । मुनिने फिर कहा कि मूर्ख ! न केवल तुम्हारे पतिको ही मारेगा किन्तु तुम्हारे पिताको भो मारेगा । इतना कहने पर उसने कुपित होकर उस वस्त्रको पैरों से रौंद दिया । यह देख मुनिने फिर कहा कि मूर्ख ! तेरी
१. कंसस्य तृणविशेषस्य मंजूषा तां ।
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