________________
भावप्राभृतम् मुनिभिक्षार्थ राजमन्दिरं प्रविष्टः । तं दृष्ट्वा जीवद्यशा हर्षमाणा 'तं हास्येनोवाच-हे मुने ! देवकी तव लघुभगिनी पुष्पजानन्दवस्त्रं तवतद्दर्शयति वस्त्रण स्वचेष्टितं प्रकाशयतीति । ततश्रु त्वा मुनिः कोपं कृत्वा वाग्गुप्ति मित्वा जगाद-मुग्धे ! किं हृष्यसि देवक्या यो भविष्यति पुत्रः स तव भर्तारमवश्यं हनिष्यति । तत्श्रुत्वा जीवद्यशा कोपेन तद्वस्त्रं द्विधा चक्रे । मुनिराह-मुग्धे! न केवलं तव पतिमेव हनिष्यत्यनेन पितरमपि तव हनिष्यति । इत्युक्ते सा कुपित्वा तद्वस्त्रं पादाम्याममर्दयत् । तदृष्टवा मुनिजंगाद-मुग्धे ! अनेन सागरावधि पृथ्वी नारीमिव पालयिष्यति । जीवद्यशास्तत्श्रुत्वा गत्व कान्तं भर्ने निवेदयामास । कसो भीत्वा हास्येनापि प्रोक्तं मुनेः सफलं भविष्यतीति
इस चेष्टा से सिद्ध होता है कि वह सागरान्त पृथिवी का स्त्री की तरह पालन करेगा। जीवद्यशा ने यह सुन एकान्त में जाकर पतिसे सब समाचार कहा। मुनि हास्यभावसे यदि कुछ कहदे तो वह सफल-सत्य होता है यह सोचकर कंस डर गया। उसने राजा वसुदेव के पास जाकर स्नेह के साथ यह याचना को कि पूर्व-दत्त वर-दानसे देवको हमारे घरके भीतर ही प्रसूति करे। कंसके उपरोध में आकर वसुदेवने 'तथास्तु' ऐसा हो हो, कह दिया सो ठीक ही है क्योंकि अवश्य होनहार कार्योंमें मुनि भी भूल कर जाते हैं। - तदनन्तर उन्हीं मुनिने एक दिन भिक्षा के लिये देवकोके घर में प्रवेश किया। वसुदेव और देवकी ने उन्हें पड़िगाह करके आहार कराया। पश्चात् हम दोनों क्या दीक्षा धारण कर सकेंगे? इस तरह छलसे पुत्रोत्पत्तिके विषय में पूछा । मुनि उनका अभिप्राय जानकर बोले-तुम दोनोंके सात पुत्र होंगे, उनमें छह पुत्र दूसरेके स्थान में वृद्धिको प्राप्त कर मोक्ष जावेंगे परन्तु मातवां पुत्र अपने छत्र की छाया द्वारा पृथिवोको संतुष्ट कर चक्रवर्ती (नारायण) होता हुआ उसका पालन करेगा। तदनन्तर देवकी ने तीन युगल पुत्र प्राप्त किये अर्थात् क्रमसे तीन बार युगल पुत्र उत्पन्न किये। ज्ञानी इन्द्रने उन सबको चरम शरीरी जानकर नेगमर्ष नामक देवसे कहा कि इनकी तुम रक्षा करो । उस देवने भद्रिलपुर में अलका नामकी वणिक पुत्री के आगे उन पुत्रोंको रखकर तथा उसके उस समय हुए मृत युगल पुत्रोंको लाकर देवकी के आगे रख दिया । कंस -उन युगल पुत्रोंको मरा देखकर ये मेरा क्या करेंगे? इस तरह मुनिका
१. तव चेष्टितेन ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org