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________________ -४. ५९ ] बोषप्राभृतम् -२३३ ( सुद्धा गुणेहि सुद्धा ) या प्रव्रज्या गुणैः कृत्वा शुद्धा सा शुद्धा कथ्यते न तु वेषमात्रेण शुद्धोच्यते । ( पव्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रव्रज्या दीक्षेदृशी भणिता प्रतिपादिता शान्तिनाथेनेति शेषः || ५८ || एवं आयत्तणगुणपज्जत्ता बहुविसुद्ध सम्मत्ते । णिग्गंथे जिनमग्गे संखेवेणं जहाखादं ॥ ५९॥ एवं आत्मतत्वगुणपर्याप्ता बहुविशुद्धसम्यक्त्वे । निग्रन्थे जिनमार्गे संक्षेपेण यथाख्यातम् ||१९|| ( एवं ) पूर्वोक्तप्रकारेण । ( आयत्तणगुणपज्जत्ता ) ' आत्मतत्वगुणपर्याप्ता परिपूर्णा, आत्मगुणभावनारहितेयं प्रव्रज्या परिपूर्णा न भवति, आत्मगुणभावनासहिता तु स्तोकापि प्रव्रज्या पर्याप्ता सम्पूर्णा भवतीति भावार्थ: । ( बहुविसुद्ध - सम्म) बहुविशुद्ध सम्यक्त्वे मुनौ प्रव्रज्या पर्याप्ता भवति मिथ्यात्वदूषिते तु नग्नेऽपि मुनो दीक्षा अदीक्षा भवति संसारविच्छेदरहितत्वात् । उत्कृष्टतया इस प्रकार जो अनशनादि बारह तपों, अहिंसा आदि छह व्रतों और चौरासी लाख उत्तर गुणोंसे शुद्ध है। बारह संयमों, तथा दो तीन अथवा दश प्रकारके सम्यग्दर्शन रूपी गुणोंसे विशुद्ध है और अट्ठाईस मूलगुणों से 'शुद्ध है -- निरतिचार है वही जिनदीक्षा है ऐसा श्री शान्तिनाथ भगवान् ने कहा है । यहाँ यह भाव स्पष्ट किया गया है कि जो दीक्षा गुणोंसे शुद्ध है वही शुद्ध दीक्षा कहलाती है, मात्र वेषसे दीक्षा शुद्ध नहीं कही जाती ॥ ५८ ॥ गाथार्थ — इस प्रकार अत्यन्त विशुद्ध सम्यक्त्वसे युक्त मुनि में प्रव्रज्या आत्मगुणों की भावना से परिपूर्ण होती है । [ कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैंने] निर्ग्रन्थ जैन मार्ग के विषय में जो कहा है वह संक्षेप से ही कहा है ॥५९॥ विशेषार्थ - पूर्वोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जो प्रव्रज्या आत्मतत्व के गुणोंसे परिपूर्ण है वही पूर्णं प्रव्रज्या है । जो प्रव्रज्या आत्म- गुणों की भावना से रहित है वह परिपूर्ण नहीं होती। इसके विपरीत जो प्रव्रज्या आत्मगुणों की भावना से सहित है वह छोटी होनेपर भी परिपूर्ण होती है। यह प्रव्रज्या अत्यन्त विशुद्ध सम्यक्त्व से युक्त मुनि में पूर्णताको प्राप्त १. आत्मत्व म० घ० । २. आत्मभावना गुण क० म० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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