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षट्प्राभृते
“आशामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात्' । विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादिगाढं च"
इत्यार्याकथिताः सम्यक्त्वस्य दशप्रकारा ज्ञातव्याः । तद्विवरणं वृत्तत्रयं यथाआज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाज्ञयैव त्यक्तग्रन्थप्रपंचं शिवममुतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः । मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाताया सद्ज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ॥ १ ॥ आकर्ण्यचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासौ सूत्रदृष्टिर्दुरधिगमगतेरर्थ सार्थस्य बीजैः । कैश्चिज्जातोपलब्धेरसमशमवशाद्द्बीजदृष्टिः पदार्थान् सक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः ॥ २ ॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गीं कृतरुचिरिह तं विद्धि विस्तारदृष्टि संजातार्थात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्य प्रवचनमवगाह्योत्थिता याऽवगाढा कैवल्यालोकितार्थे रूचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ॥ ३ ॥
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आज्ञासम्यक्त्व - १ वीतराग सर्वज्ञ देव की आज्ञा मात्रसे जो श्रद्धा होती है उसे आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं । २ ग्रंथोंके विस्तार को छोड़कर दर्शन मोह-कर्मके उपशमसे आनन्ददायी मोक्षमार्ग की जो श्रद्धा होती है उसे मार्ग-सम्यक्त्व कहते हैं । ३ शलाका पुरुषोंके पुराणकें उपदेश से जो सम्यक्त्व होता है उसे सम्यग्ज्ञानके वर्धक आगम रूप सागरका प्रसार करने वाले मुनि उपदेश सम्यक्त्व कहते हैं । ४ मुनियों के चारित्र की विधिका वर्णन करने वाले आचार सूत्रको सुनकर जो श्रद्धा होती है उसे सूत्र सम्यक्त्व कहते हैं । ५ अनुपम प्रशम गुणके कारण किन्हीं बीजों के द्वारा दुर्ज्ञेय अर्थ को जो श्रद्धा होती है उसे बोज दृष्टि कहते हैं । ६ संक्षेप से ही पदार्थों को जानकर जो श्रद्धाको प्राप्त होता है वह संक्षेप दृष्टि है । ७ द्वादशाङ्ग को सुनकर जो श्रद्धाको प्राप्त होता है उसे विस्तार दृष्टि कहते हैं । ८ जो शास्त्र के वचनके बिना किसी अर्थसे श्रद्धान होता है वह अर्थ सम्यक्त्व है । ९ अङ्ग तथा अङ्ग बाह्य शास्त्रोंका अवगाहन करनेसे जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे अवगाढ सम्यक्त्व कहते हैं और १० केवलज्ञानके द्वारा देखे हुए पदार्थों में जो श्रद्धा होती है उसे परमावगाढ सम्यक्त्व कहते हैं ।.
१-२. आत्मानुशासने गुणभद्रस्य ।
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