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-४.५८]
बोषप्रामृतम् जैन दीक्षा ईदृशी एतल्लक्षणविराजमानां भणिता प्रतिपादिता अकलकुदेवेनेति शेषः ॥ ५७॥
तववयगुणेहि सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य । सुद्धा गुहिं सुद्धा पव्वन्जा एरिसा भणिया ॥५८॥
तपोव्रतगुणैः शुद्धा संयमसम्यक्त्वगुणविशुद्धा च ।
शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदृशो भणिता ॥५८।। ( तववयगुणेहिं सुद्धा ) तपोभिरिच्छानिरोधलक्षणैदशभिः, व्रतैरहिंसादिभिः पंचभिः रात्रिभोजनपरिहारबतषष्ठः, गुणश्चतुरशीतिलक्षलक्षणैः शुद्धा उज्वला । ( संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य ) संयमा इन्द्रियप्राणसंयमलक्षणा द्वादश, सम्यक्त्वानि दशप्रकाराणि द्वित्रिप्रकाराणि च, ते च ते गुणा आत्मोपकारकाः परिणामविशेषास्तविशुद्धां निर्मला प्रवज्या भवति । निसर्गजमधिगमजं सम्यक्त्वं द्विविधं, उपशमवेदकक्षायिकभेदात्सम्यक्त्वं त्रिविधं ।
ध्यानोंसे रहित होती है वह जिन दीक्षा है, ऐसा अकलङ्क देव-वोतराग जिनेन्द्र देवने कहा ।। ५७ ॥
गाथार्य-जो तप, व्रत और गुणोंसे शुद्ध है, संयम और सम्यक्त्व - रूपी गुणोंसे विशुद्ध है और मूलगुणों से निर्दोष है वही शुद्ध दीक्षा कही गई है ।।५८॥
विशेषार्थ-इच्छा-निरोध रूप लक्षण से युक्त तपके अनशन-अवमौदर्य आदि बारह भेद हैं, व्रतके अहिंसा आदि पांच और रात्रिभोजन त्याग नामका छटवां इस प्रकार छह भेद हैं, गुणोंके चौरासी लाख भेद हैं। संयमके छह इन्द्रिय-संयम और छह प्राणसंयम इस प्रकार बारह भेद हैं। सम्यक्त्व के दश, दो अथवा तीन भेद हैं। निसर्गज और अधिगमज की अपेक्षा सम्यक्त्व दो प्रकारका है। उपशम, वेदक और क्षायिक के भेदसे तीन प्रकारका है तथा 'आज्ञामार्ग' इस आर्यामें कहे हुए १ आज्ञासमुद्भव, २मार्गसमुद्भव, ३ उपदेशभव, ४ सूत्रभव, ५ बीजभव, ६ संक्षेपभव, ७ विस्तारभव, ८ अर्थभव, ९ अवगाढ और १० परमावगाढके भेदसे दश प्रकारका है । इन दश भेदोंके स्वरूप का वर्णन करने वाले तीन पद्य इस प्रकार है
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