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________________ - ५. १५३ ] ५४९ भावेन जिनचरणकमलभक्तिलक्षणसम्यक्त्वेन करणभूतेन कृत्वा । कैः कर्तृभूतैः न लिप्यते, ( कसायविस एहि सप्पुरिसो) कषायैः क्रोधमानमायालोभः, विषयैः विषयसुखैः स्पर्शरसगन्ध वर्णशब्दः सत्पुरुषः सम्यग्दृष्टिजीवः । तथा चोक्तंघात्रीबालाऽसतीनाथपद्मिनीदलवारिवत् 1 दग्धरज्जुवदाभासं भुञ्जन् राज्यं न पापभाक् ॥ १ ॥ ते च्चिय भणामिहं जे सयलकलासीलसंजमगुणेह । बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ॥१५३॥ तानेव भणामि अहं ये सकलकलाशीलसंयमगुणैः । बहुदोषाणामावासः सुमलिनचित्तः न श्रावकसमः सः ॥ १५३॥ ( ते च्चिय भणामिहं जे ) तानेव सत्पुरुषानहं कुन्दकुन्दाचार्यो भणामि कथयामि । तान् कान्, ये पुरुषाः ( सयलकलासीलसंजमगुणेह ) सकलकलाः परिपूर्ण भावप्राभृतम् विशेषार्थ - जिस प्रकार निजस्वभाव के कारण कमलिनी का पत्ता पानो से लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार सत्पुरुष सम्यग्दृष्टि जीव, जिनेन्द्र देवके चरण कमलोंकी भक्ति रूपी सम्यक्त्व के कारण क्रोधादि कषायों तथा स्पर्शादि विषयों से लिप्त नहीं होता । जैसा कि कहा है धात्रीबाला - सम्यग्दृष्टि मनुष्य धात्रीबाल, असतीनाथ, कमलिनीपत्र पर स्थित जल और जली हुई रस्सी के समान राज्यका उपभोग करता हुआ भी पापी नहीं होता है । भावार्थ - जिस प्रकार धाय बालक का लालन-पालन करती हुई भी उसे अपना बालक नहीं मानती है, जिस प्रकार पुरुष अपनी दुश्चरित्रा स्त्रो से सम्बन्ध रखता हुआ भी उससे विरक्त रहता है, जिस प्रकार कमलिनीके पत्र पर पड़ा हुआ पानी उस पर रहता हुआ भी उससे भिन्न रहता है और जली हुई रस्सी जिस प्रकार ऊपर से भको लिये हुई दिखती है परन्तु भीतर से अत्यन्त निर्बल रहती है इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव राज्य आदिका उपभोग करता हुआ भी अन्तरङ्ग से आसक्त नहीं होता, अतः पापी नहीं कहलाता । गाथार्थ - मैं उन्हीं को सत्पुरुष अथवा मुनि कहता हूँ जो शील संयम तथा गुणों के द्वारा परिपूर्ण हैं । जो अनेक दोषोंका स्थान तथा अत्यन्त मलिन चित्त है वह तो श्रावक के भी समान नहीं है ।। १५३ ।। विशेषार्थ - श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जो शील संयम तथा गुणों के द्वारा सकल कला हैं अर्थात् समीचीन रीति से परीक्षा देने वाले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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