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________________ ५५० षट्प्राभृते [ ५. १५३कलनाः सम्यक्परीक्षादायिनः, कैः ? शीलसंयमगुणैः शीलनिकषक्षमाः संयमनिकपक्षमा गुणनिकषक्षमा भवन्ति । तथा चोक्तं यथा चतुभिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनः । तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते श्रुतेन शोलेन तपोदयागुणैः ॥ १॥ तथा चोक्तं संजमु सीलु सउच्चु तवु जसु सूरिहि गुरु सोइ । दाहछेदकसघायखमु उत्तमु कंचणु होइ ॥१॥ ( बहुदोसाणावासो ) बहूनां दोषाणामतीचारादीनामावासो गृहं, अथवा वधूनां स्त्रीणां दोष्णां बाहूनां आवास आलिंगको मुनिः। ( सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ) सुष्ठु अतीव मलिनचित्तो रागद्वेषमोहकश्मलचेता मुनिः मुनिन भवत्येवं, तर्हि किं भवति ? ण सावयसमो सो-न श्रावकसमः श्रावकेणापि गृहस्थेनापि समः सदृशः .. स न भवति । तस्य दानपूजादिलाभसंयुक्तत्वादुत्तमत्वं । तथा चोक्तं वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः ।। स्वःस्त्रोकटाक्षलु ठाकलोप्यवैराग्यसम्पदः ॥१॥ हैं-जिनके शील संयम और गुणोंमें कभी कमी नहीं आती वे ही मुनि हैं। जैसा कि कहा है यथाचतुभिः-जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना और ताड़ना इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है उसी प्रकार श्रुत शील तप और दया रूप गुणके द्वारा धर्म की परीक्षा को जाती है ॥१॥ जैसा कि कहा है संजमु-जिसमें संयम शील शौच तथा तप विद्यमान हैं वही गुरु हो सकता है, क्योंकि तपाना छेदना घिसना तथा चोट खाना आदि कार्यों में जो समर्थ है वही सुवण हो सका है। इसके विपरीत जो अनेक दोषों अथवा अतिचारोंका आवास हो अथवा जो स्त्रियों को भुजाओं के आलिङ्गन की इच्छा रखता हो तथा जिसका चित्त अत्यन्त मलिन हो वह मुनि नहीं है वह तो श्रावक के भी समान नहीं है। क्योंकि श्रावक दान पूजा आदि लाभ से संयुक्त होनेके कारण उत्तम है । जैसा कि कहा -- वरगाहस्थ--आगे होनेवाले उस तपकी अपेक्षा तो जिसमें कि देवाङ्गनाओं के कटाक्ष रूप लुटेरों के द्वारा वैराग्य रूपी संपदा लुट जाती है, आज गृहस्थ रहना भी अच्छा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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