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________________ • ४६ ] भावप्राभृतम् ३३३ मुनेर्वाक्यमसत्यमभूदिति प्रोच्य साशंक : शिलायामास्फालयामास । पश्चाद्देवकी सप्तमं पुत्रं सप्तम एव मासे जनितवती निजगृहे एव महाशुक्राच्च्युतं निर्नामकचरं मुनिवरं । वसुदेवो बलभद्रश्च नीतिमन्ती, देवकीं ज्ञापयित्वा गृहीतवन्तौ, बलेन बाल उद्घृतः, पिता घृतच्छत्रो रात्रावेव निष्कासितः । तत्पुण्येन पुरदेवता वृषभरूपेणाग्र ेऽग्र े निजश्टङ्गामणिदीपिकाकृतोद्योता मार्ग दर्शयामास । 'तद्वालपादस्पर्शाद्गोपुरमुद्घाटिताररं सद्यो जातं । तत्र बन्धनस्थित उग्रसेन उवाच कपाटोद्घाटनं कः करोति ? बलदेव उवाच - यस्त्वां बन्धान्मोचयिष्यतीति तूष्णीं तिष्ठेति । उग्रसेन एवं भवत्वित्याशीभिरभिनन्द्य स्थितः । तौ तु यमुनामितौ । सा भविष्यञ्च क्रिप्रभावेन द्विधा भूत्वा मार्ग ददौ । सवर्णः का वा पुत्र प्राप्ति के लिये गन्ध यमुना में कविने सवर्णता बतलाई है ] ऐसा कौन सार्द्र - दयालु (यमुनापक्ष में जलसे सहित ) है जो सहायता न करे । आश्चर्य से युक्त बलदेव और वसुदेव यमुना को पार कर जब आगे गये तो उन्होंने बालिकाको लेकर आते हुए नन्दगोप को देखा । उसे देखकर उन्होंने कहा कि हे भद्र ! तुम अकेले रात्रि में यहाँ किस लिये आये हो ? नन्द गोपने प्रणाम कर कहा कि मेरी प्रियाने जो कि आपकी सेविका है आदि से देवता को पूजा कर याचना की थी- हे देवि ! तू मेरेलिये पुत्र दे। मेरी उस प्रिया ने आज रात्रि पुत्री प्राप्त की । वह बोली कि यह स्त्रीरूप सन्तान उन्हीं देवताओं के लिये दे आओ । हे स्वामिन् ! शोकसे युक्त प्रिया के कहने से यह स्त्री रूप सन्तान देवताओं को देनेके लिये मेरा यह प्रयास हो रहा है, ऐसा नन्दगोपने कहा । उसके वचन सुन बलदेव और वसुदेव 'हमारा कार्य सिद्ध हो गया' इसलिये हर्षित होते हुए उससे बोले तुम हमारे अभीष्ट हो इसलिये तुमसे एक गूढ़वात कही जाती है । यह बालक चक्रवर्ती होगा तुम इसका पालन करो और यह बालिका हमारे लिये दे दो । बालिका को लेकर बलदेव और वसुदेव गुप्त रूपसे नगर की ओर चल दिये तथा नन्दगोप घर जाकर अपनो स्त्रीसें बोला – प्रिये ! देवताओं ने संतुष्ट होकर तुम्हें महा पुण्यवान् पुत्र दिया है वे बहुत प्रसन्न हैं, यह कह कर नन्दगोप ने वह पुत्र स्त्री के लिये सौंप दिया। - इधर कंसने जब सुना कि देवकी ने पुत्रीको जन्म दिया है तो उसने वहाँ जाकर उस पुत्रोको भग्ननासा कर दिया अर्थात् उसकी नाक विकृत ४. कपाट । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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