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________________ ५२४ षट्ना ते [५. १३०( उत्थरइ जा ण जरओ) आक्रमते यावन्न जरा। "छुदोत्यारोहावा आक्रमः" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण आक्रमघातोरुत्थार इत्यादेशः । तहि उत्थारह इतीदृशं रूपं स्यात् ? प्राकृते ह्रस्वदीर्घा मिथः भवतः "अचामचः प्रायेण" इति सूत्रेण, तव नास्ति दोषः "आडो ज्योतिरुद्गमेः" इति रुचादिपाठादात्मनेपदं । अथवा उत्थारइ जा ण जरा इति च क्वचित् पाठः ( रोयग्गी जा ण उहइ देहाँड) रोगाग्निर्यावन्न दहति न भस्मीकरोति, कां ? देहकुटी शरीरपर्णशालां। ( इदियबलं न वियलइ ) इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां बलं सामर्थ्य यावत्कालं न .. विगलति । इंदियबलं न वियलं इति पाठे इन्द्रियबलं यावद्विकलं हीनं न भवति । ( ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ) तावत्त्वं हे मुनिपुङ्गव ! कुरु विधेहि, कि ? आत्महितं मोक्ष साधयेत्यर्थः । उक्तं च जब तक इन्द्रियों का बल क्षीण नहीं हो जाता है तब तक तू आत्म-हित । कर ले ॥१३०॥ विशेषार्थ-'उत्थरइ' की संस्कृत छाया आक्रमते है। आङ् उपसर्ग पूर्वक क्रम धातुके स्थान में 'छन्दोत्था रोहा वा आक्रमेः' इस प्राकृत व्याकरण के सूत्रसे उत्थार आदेश हो जाता है । 'अचामचः प्रायेण' इस प्राकृत व्याकरण सूत्रके अनुसार प्रायः ह्रस्व के स्थान में दीर्घ और दीर्घ के स्थान में ह्रस्व स्वर का प्रयोग होता रहता है, इसलिये उत्थारइ के स्थान पर उत्थरइ प्रयोग सदोष नहीं है अथवा उत्थारइ जाण जरा ऐसा भी कहीं पाठ है, अतः इस पाठमें ह्रस्व दोर्घका प्रश्न ही नहीं उठता है। 'आङो ज्योतिरुद्गमेः' इस सूत्रसे आक्रमतेमें आत्मने पदका प्रयोग हुआ है। बुढ़ापा मनुष्य के शरीरको जर्जर कर देता है, रोग रूपी अग्नि शरीर रूपी पर्णशाला को क्षणभरमें जला देती है और अन्त-अन्त तक मनुष्य की इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, उस दशा में मनुष्य कुछ करना भी चाहता हो तो नहीं कर सकता, इसलिये आचार्य महाराज बड़े करुणाभाव से सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे मुनिपुङ्गव ! हे मुनि श्रेष्ठ ! जब तक बुढ़ापे ने आक्रमण नहीं किया है, जब तक रोग रूपी अग्निने तुम्हारे शरीर रूपी पर्णशाला को नहीं जलाया है और जब तक इंद्रियबल कम नहीं हुआ है तब तक तू आत्महित करले। आत्मा का हित मोक्ष है, उसे प्राप्त करले । यह मोक्ष मनुष्य शरीर को छोड़ अन्य शरीर से साध्य भी नहीं है । कहा भी है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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