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-५. १३१ ]
भावप्राभृतम्
'पलितच्छलेन देहान्निर्गच्छति शुद्धिरेव तव बुद्धेः । कथमिव परलोकार्थं जरी वराकस्तदा स्मरसि || १ ||
आतशोकभयभोगकलत्रपुत्रं -
र्यः खेदयेन्मनुजजन्म मनोरथाप्तं ।
नूनं स भस्मकृतधीरिह रत्नराशि - मुद्दीपयेदतनुमोहमलीमसात्मा ॥२॥ २ अश्रोत्रीव तिरस्कृता परतिरस्कारश्रुतीनां श्रुतिचक्षुर्वीक्षितुमक्षम तव दशां दूष्यामिवान्ध्यं गतं । भीत्येवाभिमुखान्तकादतितरां कायोऽप्ययं कंप 3 निःशङ्खत्वमहो प्रदीप्तभवनेऽप्यासे जराजर्जरः ४ ॥३॥ छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहि । कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्त ॥१३१॥ षट् जीवषडायतनानां नित्यं मनोवचनकाययोगेः ।
कुरु दयां परिहर मुनिवर ! भावय अपूर्वं महासत्व ! ॥१३१॥ पलितच्छलेन - हे सत्पुरुष ! जिस बुढ़ापेमें सफेद बालोंके बहाने तेरी बुद्धिकी शुद्धता ही शरीर से निकल जाती है उस बुढ़ापे में तू बेचारा परलोक के प्रयोजन का कैसे स्मरण करेगा ?
आतंक - जो पुरुष, बहुत भारी मनारथों से प्राप्त मनुष्य जन्मको रोग शोक भय भोग स्त्री और पुत्रोंके द्वारा खिन्न करता है - नष्ट करता है निश्चित ही महामोह से मलिन मनको धारण करनेवाला वह पुरुष भस्मकी इच्छा से रत्नराशिको जलाता है ।
५.२५
अधोत्रीव - मुझे दूसरों के तिरस्कार के शब्द न सुनने पड़ें इस इच्छा से ही मानों कान बधिर हो गये हैं । तुम्हारो इस दूषित दशाको देखने के लिये असमर्थ होनेसे ही मानों नेत्र अन्धे हो गये हैं और सामने खड़े हुए यमराज से डरकर ही मानों शरीर अत्यन्त काँप रहा है परन्तु जरा से जर्जर इस जलते हुए भवन मे तू निःशङ्क होकर बैठा है, यह आश्चर्य की बात है ।
गाथार्थ - हे मुनिवर ! हे महासत्व ! तू मनवचन काय इन तीनों योगों
१. आत्मानुशासने ।
२. आत्मानुशासने ।
३. निष्कम्पस्त्वं म० ।
४. जराजर्जर म० ।
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