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षट्नाभृते [४. १०ये तु प्रतिमायां वस्त्राभरणादि कुर्वन्ति प्रतिष्ठावेलायां दघिसक्तुमुखे बघ्नन्ति तन्मतनिरासार्थ श्री गौतमेन महामुनिना पृथ्वीवृत्तमुक्तम्निराभरणभासुरं विगतरागवेगोदया
निरम्बरं मनोहरं प्रकृतिरूपनिर्दोषतः। निरायुधसुनिर्भयं विगतहिस्य-हिसाक्रमा
निरामिषसुतृप्तिमद्विविधवेदनानां क्षयात् ॥१॥ इक्कहि फुल्लहि माटिदेइ जु सुर नर रिद्धडी। एही करइ कुसाटिवपु भोलिम जिणवर तणी ॥ १॥ .. एक्कहिं फुल्लहिं फुल्लसउ वीए फुल्ल सहासु ।
जिबजिब जिणवर पुज्जियइ तिम्बतिम्ब दुरियह नासु ॥ २॥ तथा चोक्तं समन्तभद्रस्वामिना मुनिवरेण आर्याद्वयम्
देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिहरणम् ।
कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादादृतो नित्यम् ॥ १॥ और जो प्रतिमा के ऊपर वस्त्र तथा आभूषणादि धारण करते हैं तथा प्रतिष्ठा के समय दही और सत्तू प्रतिमा के मुख में रखते हैं उनके मतका निराकरण करनेके लिये महामुनि श्री गौतम ने पृथ्वी छन्द कहा है
निराभरण-रागके वेगका उदय दूर हो जानेसे जिनेन्द्र देवका शरीर आभरणोंके बिना ही देदीप्यमान रहता है, स्वाभाविक रूपकी निर्दोषता के कारण वस्त्रके बिना ही मनोहर दिखता है, हिंस्य और हिंसाका क्रम नष्ट हो जानेसे शस्त्रों के बिना ही अत्यन्त निर्भय है और नाना प्रकार को वेदनाओं का क्षय हो जानेसे भोग्य वस्तुओं के बिना ही तृप्तिसे युक्त रहता है। जैसा जिनेन्द्र देवका शरीर होता है वैसी ही उनकी प्रतिमा होती है। __ इक्कहि-जिनेन्द्र भगवान् को एक फूल चढ़ाना देव और मनुष्यों की ऋद्धि को देता है तथा क्षुद्र-होनपर्यायों को दूर करता है ॥१॥
एक्कहि-जो भगवान् को एक फूल चढ़ाता है उसे समवशरण में अनेक फूल प्राप्त होते हैं अर्थात् वह पुष्पवृष्टि नामक प्रातिहार्य को प्राप्त होता है। यह जीव ज्यों-ज्यों जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है त्यों-त्यों उसके पाप नष्ट होते जाते हैं ॥२॥
इसी प्रकार मुनिवर समन्तभद्र स्वामी ने दो आर्या कहे हैंदेवाधिदेव-मनोरथों को पूर्ण करने वाले एवं कामको भस्म करने
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