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________________ -५.९८] भावप्रामृतम् मुनिश्रेष्ठ (भमइ) प्राम्यति पर्यटति । (चिरं ) दीर्घकालं अनन्तकालंयावत्कालं सिद्धस्वामिनो मुक्तौ तिष्ठन्ति तावत्पर्यन्तं स मिथ्यादृष्टिमुनिभ्रमति । क्व ? ( दीहसंसारे ) दीर्घसंसारेऽनन्तभवसंकटे संसारसमुद्रे मज्जनोमज्जनं करोतीति भावार्थः। पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराइ सोक्खाई। दुक्खाई दव्वसवणा गरतिरिकुदेवजोणीए ॥९८॥ प्राप्नुवन्ति भावश्रमणाः कल्याणपरम्पराणि सुखानि । दुःखानि द्रव्यश्रमणा नरतिर्यक्कुदेवयोनौ ।। ९८ ।। ( पावंति भावसवणा ) प्राप्नुवन्ति लभन्ते, के ते ? भावश्रमणाः सम्यग्दृष्टयो दिगम्बराः । ( कल्लाणपरंपराइ सोक्खाई) कल्याणानां गर्भावतारजन्माभिषेकनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणलक्षणा ( नां ) परंपरा श्रेणिर्येषु सौख्येषु तानि कल्याणपरम्पराणि एवंविधानि सौख्यानि भावभ्रमणाः प्राप्नुवन्ति तीर्थकरपरमदेवा भवन्ति ( दुक्खाई दव्वसमणा ) दुःखानि प्राप्नुवन्ति, के ते ? दव्यसमणा-द्रव्यश्रमणा जिनसम्यक्त्वरहिता नग्नाः पशुसमानाः दिगम्बरा इति भावार्थः । क्व दुःखानि द्रव्यश्रमणाः प्राप्नुवन्तीति चेत् ? ( नरतिरयकुदेवजोणीए ) नराश्च मनुष्याः, तियंचश्च पशवः, कुत्सिता देवाश्च भावनामरा व्यन्तरा ज्योतिष्काश्च तेषां योनौ उत्पत्तिस्थाने । इसके विपरीत जो भाव से रहित है व्यवहार और निश्चय-सम्यक्त्व से रहित है, मात्र बाह्य नग्न वेषको धारण कर मुनि बना है वह दीर्घकाल तक अर्थात् जब तक सिद्ध परमेष्ठी मुक्ति में निवास करते हैं तब तक ( अनन्त कालतक ) दीर्घसंसारमें अनन्त जन्म, मरणसे युक्त संसार सागरमें मज्जनोन्मज्जन करता रहता है ॥९७।। गाथार्थ-भाव-मुनि कल्याणों की परम्परा से युक्त सुखों को प्राप्त होते हैं अर्थात् तीर्थकर होकर गर्भ जन्मादि कल्याणकोंसे युक्त परम सुखको प्राप्त होते हैं और द्रव्य मुनि मनुष्य तिर्यञ्च तथा कुदेव योनि में दुःखों को प्राप्त होते हैं ।।९८॥ विशेषार्थ-यहां भाव श्रमण का अर्थ सम्यग्दृष्टि दिगम्बर साधु है। भाव श्रमण गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान और निर्वाण इन पञ्चकल्याणकों की सन्तति से युक्त सुखों को प्राप्त होते हैं अर्थात् तीर्थंकर होते हैं और द्रव्य श्रमण अर्थात् मिथ्यादृष्टि साधु जो कि पशुके समान मात्र शरीर से नग्न हैं, मनुष्य तिर्यञ्च तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क नामक कुदेवोंकी योनि में नाना दुःखोंको प्राप्त होते हैं ।।९८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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