________________
-१. ३६]
दर्शनप्राभृतम् ( वारस विह तवजुत्ता ) द्वादश-विधतपो-युक्ता मुनयः । ( कम्मं खविऊण) कर्माष्टविघं क्षपयित्वा। ( वोसट्टचत्तदेहा ) पद्मासनकायोत्सर्गलक्षण-द्विविधव्युत्सर्गेण त्यक्तशरीरा मुनयः । ( णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ) निर्वाणं मोक्षमनुत्तरं सर्ववर्गम्य उत्तम प्राप्ता गताः सिद्धा इत्यर्थः । सम्यक्त्व-माहात्म्यमेतज्ज्ञातव्यमिति सिद्धम् ।
इति श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रग्रीवाचार्यलाचार्य गृद्धपिच्छाचार्य नाम पञ्चक-विराजितेन सीमन्धर स्वामिज्ञान-सम्बोधितभव्यजनेन श्री जिनचन्द्र सूरि भट्टारकपट्टाभरणभूतेनं कलिकाल सर्वज्ञेन विरचिते षट् प्राभृतग्रन्थे सर्वमुनिमण्डली मण्डितेन कलिकाल-गौतम स्वामिना श्री मल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जन-समाज-सम्मानितेनोभय-भाषा-कविचक्रवतिना श्री विद्यानन्दि गुर्वन्तेवासिना सूरिवर श्री श्रुतसागरेण विरचिता दर्शनप्राभृत टीका सम्पूर्णा ।
विशेषार्थ-अनशन, ऊनोदर, वृत्ति-परिसंख्या, रस-परित्याग, विविक्त शय्यांसन और काय-क्लेश इन छह बाह्य तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इन छह अन्तरंगके भेदसे बारह प्रकारके तपों से युक्त मुनि, परम यथाख्यातचारित्र बलसे अपने कर्मोका क्षय करके पद्मासन या खड़े आसनसे शरीरका त्याग करते हुए सब वर्गासे उत्तम निर्वाण को प्राप्त हुए हैं। यह सब सम्यग्दर्शनका माहात्म्य जानना चाहिये ॥३६॥ ___ इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य
और गृद्धपिच्छाचार्य इन पांच नामोंसे सुशोभित, सोमन्धर स्वामोके ज्ञानसे भव्य जीवोंको सम्बोधित करने वाले, श्री जिनचन्द्र सूरिभट्टारकके पट्टके आभरण स्वरूप, कलिकाल सर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्यके द्वारा विरचित षट् पाहुडग्रन्थ में समस्त मुनियोंके समूहसे सुशोभित, कलिकाल के गौतम स्वामी श्री मल्लिभूषण भट्टारकके द्वारा अनुमत, सकल विद्वत्समाज के द्वारा सन्मानित, उभय भाषा सम्बन्धी कवियोंके चक्रवर्ती, श्री विद्यानन्द गुरुके शिष्य सूरिवर श्री श्रुतसागरके द्वारा रचित दर्शन पाहुड़की टीका सम्पूर्ण हुई।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org