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________________ २१६ षट्प्राभृते [ ४. ४९ ( णिग्गंथा ) परिग्रह - रहिता, अथवा नि- अतिशयवद्भिः ग्रन्थैः शास्त्रैः सहिता निर्ग्रन्था ( णिस्संगा ) स्त्रीप्रमुख संगरहिता, अथवा निश्चितैः शोभनैः अंगैर्द्वादशांगैः संयुक्ता निस्सङ्गा, अथवा निश्चितैरंगैरष्टभिः शरीरैरुपांगैश्च सहिता । 'प्राज्ञेन ज्ञातलोकव्यवहृतिमतिना तेन मोहोज्झितेन । प्राग्विज्ञातः सुदेशो द्विजनृपतिवणिग्वर्ण वङ्गपूर्णः ।। रहित हो अथवा निश्चितशोभमान बारह अङ्गों से सहित हो अथवा निश्चित आठ अङ्गों और उपाङ्गों से सहित हो, निर्मानाशा हो - निर्मानाआठ में से रहित हो तथा निराशा आशासे रहित हो, अथवा निरश्वाघोड़ा हाथी बैल आदि वाहन से रहित हो, अरागा-राग रहित हो अथवा अराजा-राजा आदिके साथ स्नेहसे रहित हो, निर्दोषा हो -द्वेषसे रहित हो अथवा वात पित्तादि दोषोंसे रहित हो, निर्मम हो - ममता भावसे रहित हो, अथवा म- तीन मकार और मा-लक्ष्मी से रहित हो और निरहंकारा - अहंकार से रहित हो अथवा निष्पाप होकर निज शुद्ध स्वरूप के निकट हो - उसमें लीन हो वह दीक्षा कही गई है || ४९|| सहित हों विशेषार्थ प्राकृत के 'णिग्गंथा' शब्द की संस्कृत छाया निर्ग्रन्था अथवा निग्रन्था होती है अतः दोनों रूपोंको दृष्टिमें रखकर अर्थ किया गया है कि जो ग्रन्थेभ्यो निर्गता अर्थात् परिग्रहों से रहित हो, अथवा नि- नितरां अतिशयपूर्ण ग्रन्थों - शास्त्रों से ( नितरां अतिशय - पूर्णाः ग्रन्थाः शास्त्राणि यस्यां सा ) । प्राकृत के 'णिस्संगा' शब्दकी निस्सङ्गा, निःस्वङ्गा अथवा निःस्वाङ्गा छाया है उसके आधार पर उसका अर्थ है कि जो निस्सङ्गा - स्त्री आदिके संसर्गसे रहित हो, अथवा निश्चित उत्तम अङ्गों - द्वादशाङ्गों से सहित हो - जिसमें द्वादशांगों का पठन पाठन होता हो ( निश्चितानि सुष्ठु - शोभनानि अंगानिद्वादशांगानि यस्यां सा) अथवा शरीर के निश्चित आठ अंगों और उपांगोंसे सहित हो ( निश्चितानि स्वस्य स्वशरीरस्य अङ्गानि यस्यां सा ) । दीक्षा कौन ले सकता है ? इसका वर्णन आचारसार में श्री वोरंनन्दो आचार्य ने इस प्रकार किया है प्राज्ञेन - लोकव्यवहार और लोक बुद्धिके ज्ञाता, निर्मोह आचार्य जिसे Jain Education International - १. आचारसारे । २. वर्माङ्ग म० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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