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-५.७१]
भावप्रामृतम् त्वात्, स्याद्भावलिंग चावक्तव्यं च, स्याद्रव्यलिंगं चावक्तव्यं च, स्यादुभयं चावक्तव्यं चेति सप्तभंगी योजनीया।
धम्मम्मिणिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो। णिप्फलणिग्गुणयारो पडसवणो जग्गरूवेण ॥७॥
धर्मे निप्रवासो दोषावासश्च इक्षुपुष्पसमः ।
निष्फलनिर्गुणकारो नटश्रमणो नग्नरूपेण ॥७१।। (धम्मम्मिनिप्पवासो ) धर्मे दयालक्षणे चारित्रलक्षणे आत्मस्वरूपे उत्तमक्षमादिदशलक्षणे च तदुक्तं
धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो। चारित्तं खलु धम्मो जीवाण य रक्खणो धम्मो ॥१॥
मूल में द्रव्य-लिङ्ग, भावलिङ्ग और अवक्तव्य ये तीन धर्म हैं उनके संयोग-वश उक्त सात भङ्ग हो जाते हैं। __ गाथार्थ-जिसका धर्म में निवास नहीं है, अर्थात् जो धर्मसे दूर है, जिसमें दोषों का आवास है और जो ईखके फूल के समान निष्फल तथा निगुण है वह नाग्न्य वेष से नट श्रमण-मुनिका वेष रखने वाले नट के समान जान पड़ता है ॥७१॥
विशेषार्थ-धर्मका लक्षण दया है, धर्मका लक्षण चारित्र है, धर्मका लक्षण आत्मस्वरूप है, और धर्मका लक्षण उत्तम क्षमादि दश धर्म हैं। जैसा कि कहा गया है- पम्मो वत्युसहायो-वस्तु स्वभावको धर्म कहते हैं अथवा क्षमा आदि दश धर्मोको धर्म कहते हैं अथवा चारित्र को धर्म कहते हैं अथवा जीवरक्षाको धर्म कहते हैं। इस तरह उक्त लक्षण वाले धर्मके विषय में जो अत्यन्त प्रवास है-उद्रस है अर्थात् दूरवर्ती है, जो दोषों अर्थात् अतिचारों का निवास है और जो इक्षुके फूलके समान निष्फल अर्थात् मोक्ष रूप फलसे रहित तथा निर्गुण-ज्ञानसे रहित होता है। जिस प्रकार इक्षुका फूल फल रहित और निर्गन्ध होनेसे निगुण होता है उसी प्रकार जो मुनि निष्फल-मोक्ष रहित और निर्गुण-ज्ञान-हीन होता है अथवा दूसरों का निगुण कर देता है, वह नग्न रूपके कारण नट श्रमण ही है अर्थात् मुनिवेषी नट श्रमण है। वह मात्र लोकोंको अनुरञ्जित करने के लिये नग्न होता है, यथार्थ में नहीं।
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