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षट्प्राभृते
[ ५.२
वन्दित्वाऽपि तु ( अवसेसे संजदे ) अवशेषान् संयतान् आचार्योपाध्याय सर्वसाधून् त्रिविधान् मुनीन् नत्वा केन, (सिरसा) उत्तमांगेन जानुकूर्परशिरः पंचकेन - प्रणिपत्येत्यर्थः ।
भावो य पढमलिगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विति ॥ २ ॥ भावश्च प्रथमलिंगं न द्रव्यलिंगं च - जानीहि परमार्थम् । भावः कारणभूतः गुणदोषाणां जिना विदन्ति ॥ २॥ ( भावो य पढमलिंग ) भावश्च प्रथमलिंगं दीक्षाचिन्हं भावो भवति । चकाराद्द्रव्यलिंगं धृत्वा भावलिगं प्रगटं क्रियते यथाऽपत्योत्पादनेन पुरुषशक्तिः प्रकटीभवति तथा द्रव्यलिंगिनो मुनेर्भावलिगं प्रकटं भवति पुरुषशक्तेर्भावस्य च लोचनानामगोचरत्वात् । उक्तं चेन्द्रनन्दिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचनेद्रव्यलिंगं समास्थाय भावलिंगी भवेद्यतिः । विना तेन न वन्द्यः स्यान्नानाव्रतधरोऽपि सन् ॥ १ ॥
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को शिरसे अर्थात् दो घुटने दो कोहनी और शिर इन पाँच अङ्गों से नमस्कार कर मैं भावप्राभृत ग्रन्थको कहूँगा । ऐसा श्रीकुन्दकुन्द स्वामी मङ्गलाचरण के साथ प्रतिज्ञा वाक्य को प्रगट किया है ॥ १ ॥ आगे भाव-लिङ्गकी प्रमुखता का वर्णन करते हैं -
गाथार्थ - भाव ही प्रथम लिङ्ग है, द्रव्य-लिङ्ग परमार्थं नहीं है, अथवा भावके बिना द्रव्यलिङ्ग परमार्थ की सिद्धि करने वाला नहीं है, गुण और दोषोंका कारण भाव ही है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् जानते हैं ॥ २ ॥
विशेषार्थ - भाव प्रथम लिङ्ग है अर्थात् दीक्षाका प्रथम चिह्न है । 'भावो य' भावश्च' यहाँ 'च' शब्द से यह सूचित किया है कि द्रव्य-लिङ्ग धारण करके भावलिंग प्रगट किया जाता है। जिस प्रकार सन्तान की उत्पत्ति से मनुष्य की पुरुषत्व शक्ति प्रगट होती है उसी प्रकार दिव्यलिंगी मुनिके भावलिङ्ग प्रकट होता है क्योंकि मनुष्य की पुरुषत्व शक्ति और भाव नेत्रों के विषय नहीं हैं - आँखों से दिखाई नहीं देते हैं । जैसा कि श्रीइन्द्रनन्दी भट्टारक ने समयभूषण प्रवचन में कहा है
द्रव्यलिङ्ग – मुनि द्रव्यलिङ्ग धारण कर भावलिङ्गी होता है क्योंकि नाना व्रतों का धारक होने पर भी मुनि द्रव्यलिङ्ग के बिना वन्दनीय नहीं - नमस्कार करनेके योग्य नहीं है ॥ १ ॥ इस द्रव्यलिङ्गको भावलिङ्ग
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