________________
४१२
षट्प्राभृते
घृतभूतनाशनाऽप्रयोगत्वं मूलकगाजरसूरणकन्दगुंजजनपलाण्डुविप्रदोग्धिककलिंगपंचपुष्पसंधानक कौसु 'भपत्रपत्र शाकमांसादिभक्षकभाजनभोजनादिपरिहरणं दर्शन विशुद्धि: (१) ज्ञानदर्शनचारित्रेषु तद्वत्सु चादरोऽकषायता वा विनयसम्पन्नता (२) निरवद्या वृत्तिः शीलव्रतेष्वनतिचारः ( ३ ) सततं ज्ञानस्योपयोगोऽभ्यासः अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः (४) संसाराद्भीरुत्वं संवेगः ( ५ ) स्वशक्त्यनुरूपं दानं ( ६ ) मार्गाविरुद्धः कालक्लेशस्तपः (७) मुनिगणतपः सन्धारणं साधुसमाधिः (८) गुणवतां दुःखोपनिपाते निरवद्यवृत्या तदपनयनं वैयावृत्यं ( ९ ) अर्हत्सु केवलिषु अनुरागी भक्तिः (१०) आचार्येष्वनुरागो भक्तिः ( ११ ) बहुश्रुतेष्वनुरागो भक्तिः ( १२ )
[ ५.७७
इन आठ गुणोंसे युक्त होना तथा चमड़े में रखे हुए तैल घी और tant प्रयोग नहीं करना एवं मूली, गाजर, सूरण कन्द गुज्जन, प्याज, मृणाल, दुधी, तरबूज, पञ्चपुष्प, अचार मुरब्बा, कुसुम्भ पत्र, पत्तोंवाली शाक और मांस भक्षी मनुष्यों के वर्तन तथा भोजन आदि का त्याग करना दर्शनविशुद्धि भावना है ।
च
(२) दर्शन ज्ञान और चारित्र तथा इनके धारकों में आदर और अकषाय भावके धारण करनेको विनय सम्पन्नता कहते हैं ।
(३) शोल तथा व्रतों में निर्दोष प्रवृत्ति करना शोल-व्रतेष्वनतीचार भावना है ।
( ४ ) निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना है ।
(५) संसार से भयभीत रहना संवेग भावना है ।
(६) अपनी शक्ति के अनुसार दान देना शक्तितस्त्याग भावना है। (७) मार्ग से अविरुद्ध कायक्लेश करना शक्तितस्तप भावना है। (८) मुनि-समूह को तपमें धारण करना अर्थात् उनके तपश्चरण में आये हुए विघ्नों का दूर करना साधु-समाधि है ।
Jain Education International
(९) गुणी मनुष्यों को दुःख उपस्थित होनेपर निर्दोष वृत्तिसे उसे दूर करना वैयावृत्य भावना है ।
(१०) अर्हन्त केवली भगवान् में अनुराग होना अर्हद्भक्ति है ।
(११) आचार्यों में अनुराग होना आचार्य - भक्ति है । (१२) अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता उपाध्याय आदिमें अनुराग होना बहुश्रुत
भक्ति है ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org