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-५.७८]
भावप्रामृतम्
प्रवचने जिनसूत्रेऽनुरागो भक्तिः (१३) सामायिक सर्वजीवेषु समत्वं, चतुर्विधातिजिनानां स्तुतिः स्तवः कथ्यते, एकजिनस्य स्तुतिर्वन्दनाभिधीयते, कृतदोषनिराकरणं प्रतिक्रमण, आगामिदोषनिराकरणं प्रत्याख्यानं । एकमुहूर्तादिषु शरीरव्युत्सर्जनं कायोत्सर्गः एतेषां षण्णामावश्यक नामपरिहाणिरेका चतुर्दशी भावना (१४) ज्ञानादिना धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावना (१५) सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वं (१६) एताः षोडशभावनाः समस्तास्तीर्थकरनामकारणं दर्शनविशुद्धिसहिता व्यस्ता अपि तीर्थकरनामकारणं भवन्तीति ज्ञातव्यं ।
वारसविहतवयरणं तेरसकिरियाउ भाव तिविहेण । धरहि मणमत्तदुरियं णाणांकुसएण मुणिपवर ॥७॥ द्वादशविधतपश्चरणं त्रयोदशक्रियाः भावय त्रिविधेन । धर मनोमत्तदुरितं ज्ञानाङ्कुशेन मुनिप्रवर ! ॥ ७८ ॥
( वारसविहतवयरणं ) द्वादशविघं तपश्चरणं अनशनमुपवासः, अवमौदर्यमेकग्रासादिरल्पाहारः, वृत्तिपरिसंख्यानं गणितगृहेषु भोजन वस्तुसंख्या वा, रसपरित्यागः षड्रसविवर्जनं, विविक्तेषु जन्तुस्त्रीपशुनपुंसकरहितेषु स्थानेषु शून्यागारादिषु आसनं उपवेशनं शय्या निद्रा-स्थान अवस्थानं वा विविक्तशय्यासनं, कायक्लेशः
(१३) प्रवचन-जिनागममें अनुराग होना प्रवञ्चनभक्ति है।
(१४) सामायिक सब जीवों में समता भाव होना, स्तव अर्थात् चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति करना, वन्दना अर्थात् एक तीर्थंकर की स्तुति करना, प्रतिक्रमण अर्थात् लगे हुए दोषोंका निराकरण करना, प्रत्यास्यान अर्थात् आगामी दोषोंका निराकरण करना और कायोत्सर्ग अर्थात् एक मुहूर्त आदिके लिये शरीर से ममत्व भाव छोड़ना इन छह आवश्यक कार्योंको नहीं छोड़ना आवश्यकापरिहाणि भावना है।
(१५) ज्ञान आदिके द्वारा धर्मका प्रकाश करना मार्ग-प्रभावना है।
(१६) सहधर्मी भाइयों में स्नेह करना प्रवचन-वत्सलत्व भावना है। ये सोलह भावनाएँ सब मिलकर अथवा दर्शन-विशुद्धिके साथ पृथक्-पृथक् भी तीर्थकर नाम कर्म के बन्ध के कारण हैं ।।७७॥
गाथार्थ हे मुनिप्रवर ! तुम बारह प्रकारके तपश्चरण और तेरह क्रियाओंका मन वचन कार्यसे पालन करो तथा ज्ञानरूपी अंकुशके द्वारा मन रूपी मत्त हाथीको वश करो। ..विशेषार्थ-तपके बारह भेद हैं जिनमें छह बाह्य तप हैं और छह अन्तरङ्ग तप । अनशन अर्थात् चार प्रकारके आहार का त्याग कर उप
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