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षद्माभूते [५.८१तथा समन्तभद्रस्वाम्याचारप्यभिहितं--
'देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिहरणं । कामदुहि कामादाहिनी परचिनुयादादृतो नित्य ॥१॥
अर्हच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् ।।
भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥२॥ यदीदं सर्वज्ञवीतरागपूजालक्षणं तीर्थकरनामगोत्रबन्धकारणं विशिष्ट निनिदानं पुण्यं पारम्पर्येण मोक्षकारणं गृहस्थानां श्रीमद्भिर्भणितं तहिं साक्षान्मोक्षहेतुभूतो धर्मः क इत्याह--( मोहक्खोहविहीणो ) ( परिणामो अप्पणो धम्मो ) मोहः पुत्रकलत्रमित्रधनादिषु ममेदमिति भावः, क्षोभः परीषहोपसर्गनिपाते चित्तस्य चलनं ताभ्यां विहीनो रहितः मोहक्षोभविहीन एवं गुणविशिष्ट आत्मनः शुद्धबुद्ध कस्व
इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी कहा है
देवाधिदेव-मनोरथों को पूर्ण करने वाले एवं कामको भस्म करने वाले देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को उपासना-पूजा वन्दना आदि समस्त दुःखों को दूर करने वाली है इसलिये श्रावक को बड़े आदर के साथ नित्य प्रति करना चाहिये ॥१॥
अर्हच्चरण-राजगृह नामक नगर में हर्ष से मत्त हुए मेण्डक ने महात्माओं के आगे अर्हन्त भगवान् के चरणों को पूजा का महान् फल प्रकट किया था ॥२॥
यदि तीर्थंकर नामकर्म के बन्धका कारण, एवं निदान-रहित यह सर्वज्ञ वीतराग देवकी पूजा रूप सातिशय पुण्य गृहस्थों के परम्परा से मोक्षका कारण है ऐसा आपने कहा है तो साक्षात् मोक्षका कारण भूत धर्म क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गाथा के उत्तरार्ध में कहते हैं कि मोह और क्षोभ से रहित आत्माका परिणाम धर्म है। पुत्र स्त्री मित्र तथा धन आदि में 'यह मेरा है' इस प्रकार का जो भाव है वह मोह कहलाता है। परीषह तथा उपसर्ग के आने पर चित्तका विचलित होना क्षोभ है, उन दोनों से रहित शुद्ध बुद्धक-स्वभाव वाले आत्मा का जो चिच्चमत्कार अथवा चिदानन्द रूप परिणाम है, वह धर्स कहलाता है ।
१-२. रत्नकरण्डश्रावकाचारे।
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