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-५. ८१] भावप्राभृतम्
४३५ तं धम्म केदिसं हवदि तं तहास धर्मः कीदृशो भवति तद्यथा-तमेव निरूपयन्ति श्रीकुन्दकुन्दाचार्याःपूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥४१॥ __पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनः शासने भणितम् । ... मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनो धर्मः ।।८।।
(पूयादिसु वयसहियं ) पूजादिषु व्रतसहितं पूजा आदिर्येषां कर्मणां तानि पूजादीनि तेषु पूजादिषु व्रतसहितं श्रावकव्रतसहितं । ( पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं ) पुण्यं स्वर्गसौख्यदायकं कर्म जिनस्तीर्थकरपरमदेवरपरकेवलिभिश्च हि स्फुट शासने आहतमते उपासकाध्ययननाम्न्यङ्ग भणित कर्तृतया प्रतिपादित-इदं कर्म करणीयमित्यादिष्टं । तथा चोक्तं जिनसेनपादः- .
पुण्य जिनेन्द्रचरणाचनसाध्यमाचं पुण्यं सुपात्रगतदानसमुत्थमेतत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात् पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥१॥ आगे वह धर्म कैसा है इसीका श्री कुन्दकुन्दाचार्य निरूपण करते हैं
गाथार्य-पूजा आदि शुभ कार्यों में व्रत सहित प्रवृत्ति करना पुण्य है, ऐसा जिन-मत में जिनेन्द्रदेवने कहा है और मोह तथा क्षोभ से रहित आत्माका जो परिणाम है वह धर्म है ।।८१॥
विशेषार्थ-वीतराग जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, निर्ग्रन्थ गुरु आदि सत्पात्रों के लिये दान देना तथा श्रावकों के व्रत पालन करना आदि शुभ कार्य पुण्य कहलाते हैं तथा स्वर्ग सुख के देनेवाले हैं, ऐसा तीर्थंकर परमदेव एवं अन्य केवलियों ने भी कहा है। जिनशासनके उपासकाध्ययन नामक अङ्गमें इस पुण्यको करना चाहिये, ऐसा आदेश दिया है । जैसा कि जिनसेन स्वामी ने कहा है
पुण्यं --जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को पूजा से प्राप्त होने वाला पहला पुण्य है, सत्पात्र के लिये दिये हुए दानसे उत्पन्न होने वाला दूसरा पुण्य है, व्रतोंका पालन करने से उत्पन्न होनेवाला तीसरा पुण्य है तथा उपवास करने से होनेवाला चौथा पुण्य है पुण्यके अभिलाषी मनुष्यों को उक्त चार प्रकार के पुण्यका उपार्जन करना चाहिये । १. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिहिट्ठो ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ २. महापुराणे।
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