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________________ भोग सुख के कारण जीव ने अनन्त भवसागर भ्रमण किया है प्राणिवध के कारण जीव चौरासी लाख योनियों में घूमा है अभयदान की प्रेरणा ३६३ मिथ्यामतों का वर्णन मिथ्यादृष्टि जीव अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता अभव्य जीव को जिनधर्म नहीं रुचता कुत्सित धर्म के सेवन का फल तीन सौ तिरेसठ पाखण्डी मतं छोड़ने का उपदेश सम्यग्दर्शन से रहित जीव चलवश है सम्यग्दृष्टि की प्रशंसा जिनलिङ्ग की प्रशंसा सम्यग्दर्शन धारण करने का उपदेश ४१ - जीव का स्वरूप भव्य जीव ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश करता है घातिया कर्मों के नष्ट होने पर प्रकट होने वाले गुण सम्यग्दर्शन से जीव परमात्मा बनता है जिनवर की चरण वन्दना का फल सत्पुरुष कषायरूपी विष से लिप्त नहीं होता सत्पुरुष का लक्षण धीर वीर पुरुषों का लक्षण विषय रूपी सागर के पार करने वाले भगवान धन्य हैं ज्ञानरूपी शस्त्र के द्वारा माया रूपी बेल का नाश चारित्ररूपी खड्ग के द्वारा पाप रूपी स्तम्भ नाश होता है Jain Education International गाथा १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८-१३९ १४० १४१ १४२-१४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४९-१५० १५१ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ For Personal & Private Use Only पृष्ठ ५२६ ५२७ ५२८ ५२९ ५३० ५३१ ५३२-५३३ ५३३ ५३४ ५३५-५३६ ५३७ ५३८ ५३९ ५४० ५४१ ५४४-५४५ ५४७ ५४८ - ५४९ ५५१ ५५२ ५५३ ५५३ www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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