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-४. ५५-५६] बोषप्रामृतम्
२२९ तिलओसत्तनिमित्तं समवाहिरगंथसंगहो पत्थि।। पावज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरिसीहि ॥५५॥
तिलकोशत्वमात्र समबाह्यग्रन्थसंग्रहो नास्ति ।
प्रव्रज्या भवति एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभिः ॥ (तिल ओसत्तनिमित्तं ) तिलस्य पितृप्रियबीजस्य कोशत्वमानं तिरुतुषमात्रमपि अश्रमणपरिग्रहः । ( समबाहिरगंथसंगहो णत्यि ) तिलतुषमात्रसमोऽपि बाह्यग्रन्थस्य संग्रहो नास्ति न विद्यते । ( पावज्ज हवइ एसा ) प्रव्रज्या भवत्येषा । (जह भणिया सव्वदरिसीहिं ) यथा भणिता सर्वदर्शिभिः सर्वज्ञदेवैरिति ।
उवसग्गपरिसहसहा णिज्जणदेसे हि णिच्च अत्येइ । सिल कडे भूमितले सव्वे आरहइ सम्वत्थ ॥५६॥
उपसर्गपरीषहसहा निर्जनदेशे हि नित्यं तिष्ठति ।
शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र ॥५६॥ ( उवसग्गपरिसहसहा) उपसर्गाश्च तिर्यग्मानवदेवाचेतनभवाश्चतुःप्रकाराः, परीषहाश्च पूर्वोक्ता द्वाविंशतिः उपसर्गपरीषहास्तान् सहते तेषु वा सहा समर्षा उपसर्गपरीषहसहा । ( णिज्जणदेसे हि णिच्च अत्थेइ ) निर्जनदेशे मनुष्यरहित
, गाथार्थ-जिसमें तिल तुषके अग्रभागके बराबर भी बाह्य परिग्रह का संग्रह नहीं है वही जिन दीक्षा है, ऐसा सर्व-दर्शी-जिनेन्द्र भगवान
ने कहा है ॥५५॥ :: विशेषार्थ-तिलका दाना अत्यन्त छोटा होता है उसके तुषके अग्र• भागके बराबर भी बाह्य परिग्रह का संग्रह मुनिके नहीं होता है ऐसा सर्वज्ञ देवने कहा है ॥५५॥ .
गाथार्थ--जिन दीक्षा उपसर्ग और परीषहों को सहन करती है, इसके धारक निरन्तर निर्जन स्थान में रहते हैं तथा सर्वत्र शिला, काष्ठ अथवा भूमितल पर आरूढ होते हैं-बैठते अथवा शयन करते हैं ॥५६॥
विशेषार्थ-तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और अचेतन पदार्थोसे उत्पन्न होनेके कारण उपसर्गके चार भेद हैं। परीषहके बाईस भेद पहले कहे जा चुके हैं। जिन दीक्षा उन उपसर्ग और परीषहोंके सहन करने में समर्थ हैं। जिन दीक्षा-जिन दोक्षाके धारक मुनि निश्चयसे निरन्तर निर्जन देश
मनुष्यरहित वनमें रहते हैं और सर्वत्र शिला काठके पाटे, भूमितल अथवा · तृण-समूह पर आरव होते हैं-बैठते हैं तथा शयन करते हैं। यहां
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