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________________ ३०८ षट्प्राभूते [ ५.४५ मुनिना भाषितं यत्पर्वतो नरकं यास्यति । तत्प्रीत्यर्थं भार्या स्वयं च एकान्ते गत्वा पिष्टेन द्वौ वस्ती निर्माय पुत्रच्छात्रभावपरीक्षणार्थं द्विजोत्तम एकं पुत्राय द्वितीयं छात्राय ददौ । परादृश्यप्रदेशे गत्वा गन्धपुष्पमंगलेचित्वा कर्णच्छेदं कृत्वा एतावद्यवानयतं युवां । तत्र पर्वतः पापी अस्मिन् वने न कोऽपि वर्तते इति कर्णी छेदयित्वा पितरमागत्य पूज्य ! यथा त्वयोक्तं मया तथैव कृतमित्यवदत् । नारदस्तु वनं गत्वा विचारयति गुरुणोक्तमदृश्यप्रदेशेऽस्य कर्णौ छेदनीयाविति । चन्द्रः पश्यति । रविर्निरीक्षते । नक्षत्राणि विलोकन्ते । ग्रहास्तारकांश्च पश्यन्ति । देवता निरीक्षन्ते । सन्निहिताः पक्षिणो मृगजातयश्च निषेद्धुं न शक्यन्ते इति विचाय कर्णयोश्छेदमकृत्वा गुरुसमीपमागतो नारदः । यतोऽयं भव्यात्मा वनेऽदृष्टदेशस्यासंभवात्, नामस्थापनाद्रव्यभावानां विचारचतुरः पापापख्याति कारणक्रियाणामकर्तव्यत्वादहमिमं छागं विच्छिन्नावयवं नाकार्षमित्युवाच । तत्श्रुत्वा क्षोरकदम्बः आपने जैसा कहा था वैसा मैंने कर दिया है । परन्तु नारद वनमें जाकर विचार करता है कि गुरु ने कहा था - अदृश्य स्थान में जाकर इसके कान काटना चाहिये । यहाँ चन्द्रमा देख रहा है, सूर्य देखता है, नक्षत्र देखते हैं, पक्षी और नाना प्रकारके मृगोंको नहीं रोका जा सकता, यह विचार कर नारद कानोंको बिना काटे ही गुरुके पास आगया क्योंकि वह भव्य जीव था । उसने कहा कि वनमें ऐसे स्थानका मिलना असम्भव था जिसे कोई नहीं देख रहा हो । मैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपके विचार करनेमें चतुर हूँ, पाप और अपकोर्तिको कारण जो क्रियाएँ हैं उन्हें नहीं करना चाहिये, इस विचारसे मैंने इस बकरेको छिन्तांग नहीं किया है अर्थात् इसके कान नहीं काटे हैं। नारदका उत्तर सुनकर क्षीरकदम्ब अपने पुत्रकी मूर्खता को जान गया । वह विचारने लगा कि मिथ्यादृष्टि एकान्त से कहा करते हैं कि कार्य की सिद्धि कारण से होती है, वह असत्य है | यहाँ कारण गुरु है और शिष्य की बुद्धिका उत्कर्ष होना कार्य है परन्तु वह नियमसे नहीं होता क्योंकि मेरे पढ़ाने पर भी मेरा पुत्र मूर्ख है । इसलिये एकान्त मतको धिक्कार है । आखिर वह कुमत ही है । कारण के अनुसार कार्यं कहीं होता है और कहीं नहीं होता है 'ऐसा अनेकान्त मत ही सत्य है' इस तरह उसने अनेकान्त मतकी अनेक बार स्तुति की। नारद को योग्यता को जानकर क्षीरकदम्ब ने कहा – हे नारद ! तुम्हीं सूक्ष्म बुद्धि और यथार्थ ज्ञाता हो, आजसे मैं तुम्हें उपाध्याय पद पर स्थापित करता हूँ, तुम्हें सब शास्त्रोंकी व्याख्या करनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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