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________________ -५. ४५ ] भावप्राभृतम् ३०७ पुरुषं पुरुषं प्रति 'मतयस्तु भिन्नाः सन्ति । तेन नारदो कुशलो बभूव । प्रिये ! त्वत्पुत्रः स्वभावेन मन्दो नारदेऽसूयते किं क्रियते । इत्युक्त्वा स्त्रिया विश्वासमुत्पादयितु' पर्वतसमीपे नारदं पप्रच्छ । हे नारद ! त्वं वने भ्राम्यन् केन कारणेन पर्वतस्य बहुविस्मयं कारितवान् । नारद उवाच स्वामिन् ! पर्वतेन सह वनं गच्छन नर्मकथापरः पीतवारां मयूराणां संघो नद्या निवर्तने स्वचन्द्रक कलापाम्बुमध्यमज्जनगौरवात् भीत्वा व्यावृत्य विमुखं कृतपश्चात्पदस्थितिः शिखी च गतवानेकः । शेषास्त्वोषज्जलार्दिता पत्रभागं विधूय अगुः । तं दृष्ट्वाहमुक्तवान्-पुमानेकः शेषाः स्त्रिय इत्यनुमानात् । ततो वनान्तरात्कश्चिदागत्य पुरसमीपे करिण्यारूढां स्त्रियं नयन् पुरं प्रति पश्चिमपादाभ्यां प्रयाणके स्वमूत्र घट्टनात् करिणीमकथयं । दक्षिणे भागे तरुत्रीरुभंगेन वामलोचनेऽन्धां जगाद | मार्गात्प्रच्युत्य श्रमादारूढयोषितः शीतच्छायाभिलाषेण पुलिनस्थले सुप्तायां उदरस्पर्शमार्गेण गर्भिणीं गुल्मलग्नदशया स्त्रियं च वेद । करेणुश्रितमार्गे गृहोद्यत्सितकेतुदर्शनेन पुत्रजन्मोक्तवान् । तत्श्रुत्वा विप्रो निजापराधाभावं भार्यायां अकथयत् । तदा पर्वतमाता प्रसन्ना जाता । प्रिये ! लिये मैंने उसे बाँयें नेत्रसे अन्धी कहा था । उसपर बैठी हुई स्त्रीने थकावट के कारण मार्गसे कुछ दूर हटकर शीतल छाया की इच्छासे नदी के तटपर शयन किया था। उसके पेटका स्पर्श होनेसे वहाँ जो चिह्न बनगये थे उनसे उसे गर्भिणी तथा झाड़ी में लगे हुए वस्त्र के छोरसे स्त्री जाना था । हस्तिनी जिस मार्ग से गई थी वहीं गृहके ऊपर सफेद पताका फहरा रही थी इसलिये पुत्र जन्म हुआ है, ऐसा कहा था। नारद का उत्तर सुनकर ब्राह्मण स्त्रीसे कहा कि इसमें मेरा अपराध नहीं है । जब पर्वत की माता प्रसन्न होगई तब ब्राह्मणने यह कहा कि प्रिये ! मुनिने कहा था कि पर्वत नरक जावेगा । मुनिके कथन की प्रतोतिके लिये भार्या तथा स्वयं ब्राह्मणने एकान्त में जाकर चुन के दो बकरे बनाये और पुत्र तथा छात्रके भाव की परीक्षा के लिये ब्राह्मणने एक बकरा पुत्रके लिये और दूसरा शिष्य के लिये दिया। साथ ही यह आदेश दिया कि तुम लोग जहाँ कोई देख न सके ऐसे स्थान में जाकर गन्ध, पुष्प तथा मङ्गल द्रव्योंसे इनकी पूजा करो और कान काटकर दोनों बकरोंको आज ही वापिस लाओ । • उन दोनोंमें पापी पर्वतने 'इस वन में कोई नहीं है' यह विचारकर बकरे दोनों कान काट लिये और आकर पितासे कह दिया कि पूज्य ! १. प्रति मतमस्तु मध्ये ददानि पाठः म० । २. वेद क० ४०, विवेद म० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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