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________________ ३०६ षट्प्राभृते [ ५.४५ बन्धनं बबन्ध । तत्र किंचिदन्तरं गत्वा नारदोक्तं सद्भूतं ज्ञात्वा विस्मित्याग्र े गत्वा करेणुमागं ददर्श । दृष्ट्वा नारद उवाच - एषा हस्तिनी गता सा वामलोचनेनान्धा, तामारूढा गर्भिणी स्त्री, पट्टाम्बरसहिता, अद्य पुत्रमजीजनत् । अन्धसर्पविलप्रवेशवत् पूर्वोक्तं तव वचनं यादृच्छिकं सत्यमभूत्, इदं तु मिथ्या मया - विदितं किमस्तीति स्मित्वा स सासूयं विस्मयं चित्ते प्राप्य तदसत्यं कर्तुं हस्तिनी - मनुगतः पुरं प्रविवेश । नारदोक्तं तथैव ददर्श । गृहमेत्य पर्वतो मातुर जगाद । किं जगाद ? मातः ! मे पिता यथा नारदं शिक्षितवांस्तथा मां नापीपठत् अस्य चेतसि नारदो वर्तते नाहमिति । तेन वचनेन विप्राया हृदयं विदारितं । पापोदयाद्विपरीतं तथा विचारितं । शोकं च ब्राह्मणी चकार । क्षीरकदम्बस्तु स्नात्वा अग्निहोत्रादिकं कृत्वा भुक्त्वा च स्थितः । तं प्रति ब्राह्मण्युवाच त्वयो पुत्रो न शिक्षितः, लोको व्युत्पादितः । क्षीरकदम्ब उवाच - प्रिये ! अहं निविशेषोपदेशः हृदय में नारद है, मैं नहीं । पुत्रके इस वचनसे ब्राह्मणोका हृदय विदीर्ण होगया । पापके उदयसे उसने विपरीत विचार किया । ब्राह्मणीने शोक किया । जब क्षीरकदम्ब स्नान, होम तथा भोजन कर बैठा तब ब्राह्मणी बोली कि तुमने संसारको तो व्युत्पन्न बनाया, पर पुत्र को शिक्षित नहीं किया । क्षीरकदम्ब बोला- प्रिये ! मैं एक समान उपदेश देता हूँ परन्तु प्रत्येक पुरुष में बुद्धि भिन्न-भिन्न होतो है इसलिये नारद कुशल होगया । प्रिये ! तुम्हारा पुत्र स्वभावसे ही मूर्ख है तथा नारदसे ईर्ष्या रखता है, क्या किया जाय ? इतना कहकर उसने स्त्रीको विश्वास उत्पन्न करानेके लिये पर्वत के सामने नारदसे पूछा । हे नारद! तुमने वनमें घूमते हुए किस कारण पर्वतको बहुत आश्चर्य में डाल दिया था ? नारद बोला - स्वामिन् ! पर्वत के साथ जाता हुआ में हास्य कथा कर रहा था। उसी समय पानी पी चुकने वाले मयूरोका एक झुण्ड नदीसे लौट रहा था। उनमें एक मयूर अपने चन्द्रक समूहको पानीके मध्य डूबजाने से भारी होनेके कारण भयभीत हो लौटकर उल्टे पैर रखता हुआ गया था । शेष मयूर थोड़े जलसे भोगने के कारण पंखोंको फड़फड़ा कर गये थे । वह देखकर मैंने अनुमानसे कहा था कि उन मयूरोंमें एक तो पुरुष था और बाकी स्त्रियाँ थीं। तदनन्तर वनके मध्यसे आकर कोई पुरुष नगरके समीप हस्तिनी पर बैठी स्त्राको नगरकी ओर लिये जा रहा था । ठहरने के स्थान पर हस्तिनीने पेशाब की थी । वह पेशाब उसके पिछले पाँवोंसे सटती हुई गिरी थी इसलिये मैंने उसे हस्तिनी कह दिया था । वह हस्तिनी जिस मार्गसे आई थी उसके दाँयें भागके वृक्ष तथा लताएँ भग्न हुई थीं इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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