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________________ -५.४५ ] भावप्राभृतम् ३०५ जग्राह । वसुनिष्कण्टकराज्यं कुर्वन्नेकदा वनं क्रीडितुं गतः तत्राकाशे उड्डीयमानाः [ उड्डीयमानान् ] पक्षिणः स्खलित्वा पतितान् दृष्ट्वा चिन्तयामास । आकाशे उड्डीयमाना यत्पक्षिणः पतन्ति तत्र किमपि कारणं भविष्यतीति तस्मिन् प्रदेशे वाणं मुमोच | सोऽपि तत्र स्खलितः, तत्र स्वयं जगाम सारथिना सह तत्र पस्पर्श । आकाशस्फटिकस्तंभं विज्ञाय परंरविदितं तमानयामास । तस्य पादचतुष्टयं पृथु निर्माप्य तत्सिंहासनमारुह्य नृपादिभिः सेव्यमानः सत्यमाहात्म्यात् खे सिंहासने स्थितो वसुरिति विस्मयमानेन लोकेन 'घोषितोन्नतिस्तस्थौ । एवमस्य काले गच्छति पर्यंतनारदावेकदा समित्पुष्पार्थं वनं गतौ । तत्र नदीतटे मयूरा जलं पीत्वा गतास्तन्मार्गदर्शनान्नारदः प्राह-ये मयूराः पानीयं पीत्वा गतास्तेष्वेको मयूरः सप्त मयूर्यो वर्तन्ते । तत् श्रुत्वा पर्वतः प्राह- मृषा वार्तासौ । मनस्य सहमानः पणित इस प्रकार वसुका समय व्यतीत हो रहा था । एक दिन पर्वत और नारद समिधा तथा फूलों के लिये वन गये। वहाँ नदीके तटपर पानी पीकर कुछ मयूर जा चुके थे । उनका मार्ग देखकर नारदने कहा कि जो मयूर पानी पोकर गये हैं उनमें एक मयूर है और सात मयूरो हैं । यह सुन कर पर्वत ने कहा कि यह बाल मिथ्या है। तथा मनमें सहन न करते हुए उसने एक शर्त बांधली । तदनन्तर कुछ दूर जाकर नारद के कथनको सत्य जानकर वह विस्मय करने लगा । पश्चात् आगे जानेपर उन्होंने हाथियों का मार्ग देखा । उसे देख नारद ने कहा- यहांसे जो हस्तिनी गई है वह बाँयें नेत्रसे अन्धी थी, उसके ऊपर रेशमी वस्त्र पहिने हुए एक गर्भिणी स्त्री बैठी थी तथा आज उसने पुत्र उत्पन्न किया है । इसके उत्तर में पर्वतने कहा कि जिस प्रकार कभी अचानक अन्धा सर्प अपने विलमें प्रवेश कर जाता है उसी प्रकार अचानक तुम्हारा पहलेका वचन सत्य होगया परन्तु यह तो मिथ्या है। मेरे द्वारा अविदित-अज्ञात क्या है ? ऐसा कौन पदार्थ है जिस में जान न सकू ं। इस प्रकार मन्द हास्य करके उसने ईष्यि साथ हृदयमें विस्मय प्राप्त किया और नारदके कथन को असत्य करने के लिये हस्तिनीके पीछे चलता हुआ वह नगर में जा पहुँचा । वहाँ जाकर नारदने जैसा कहा था वैसा ही पर्वत ने देखा । घर आकर पर्वत ने माताके आगे कहा कि हे मातः ! मेरे पिताने जिस प्रकार नारदको पढ़ाया है उस प्रकार मुझे नहीं पढ़ाया। इनके १. पोषितोऽत्रेति म० । २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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