________________
-५. ४५ ]
भावप्राभृतम्
३०९
स्वपुत्रस्य जडत्वभावं ज्ञात्वा विचारयामास । यन्मिथ्यादृष्टय एकान्तेन ब्रुवन्ति कारणात्कार्यसिद्धिरिति तदसत्यं अत्र कारणं गुरुः कार्यं शिष्यबुद्धयुत्कर्षः तत्त्वेकान्तेन न भवति यतो मयि पाठयत्यपि मत्पुत्रो जड इति तेन घिगेकान्तं मतं तत्कुमतमेव । कारणानुगतं कार्यं क्वचिद्भवत्येव क्वचिन्न भवत्येवेत्यनेकान्तमतं सत्यमित्यनेकशस्तुष्टाव । नारदस्य योग्यत्वं ज्ञात्वा नारद ! त्वमेव सूक्ष्मबुद्धिर्यथार्थज्ञाता । अद्य प्रभृत्युपाध्यायपदे त्वं मया स्थापितः । सर्वशास्त्राणि त्वया व्याकर्तव्यानि इति तं प्रपूज्य प्रावर्धयत् । धीमतां सर्वत्र गुणैरेव प्रीतिः । निजसन्मुखं स्थितं पुत्रं जगाद-त्वं विवेकमन्तरेणैव एतद्विरूपकं चकथं, शास्त्रादपि तव कार्याकार्यविवेको नास्ति, मच्चक्षुः परोक्षे त्वं अरे कथं जीविष्यसि मूर्ख । एवं शोकेन दत्तशिक्षो नारदे वद्धवैरो बभूव । कुधियामोदृशी गतिर्भवति ।
चाहिये । इस प्रकार उसका सत्कार कर उसे खूब बढ़ावा दिया । बुद्धिमानों को सब जगह गुणोंसे ही प्रेम होता है । अपने सामने बैठे हुए पुत्र से उसने कहा कि तूने विवेक के बिना ही यह विरुद्ध कार्य किया है । शास्त्र से भी तुझे कार्य तथा अकार्य का विवेक नहीं हुआ । अरे मूर्ख ! मेरे नेत्रोंके पीछे अर्थात् मेरे मरने के बाद तू कैसे जीवित रहेगा ? इस प्रकार पिता ने तो उसे शिक्षा दी परन्तु शोक के कारण वह नारद पर वेर बाँध बैठा । सो ठीक हो है क्योंकि दुर्बुद्धि मनुष्यों की ऐसी ही गति
है ।
एक दिन क्षीरकदम्ब गृह आदिका त्याग करता हुआ वसुके पास जाकर बोला कि यद्यपि पर्वत और उसकी माता दोनों ही मन्द-बुद्धि हैं. तथापि भद्र ! मेरे पीछे उनकी सब तरह से रक्षा करना । वसुने कहाहे पूज्यपाद ! आपके उपकार से मैं प्रसन्न हूँ। यह कार्य तो बिना कहे ही सिद्ध था, इस कार्य में मुझसे यह क्या कहना था ? इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये | आप यथायोग्य अपना परलोक सुधारिये । इस प्रकार की मनोहर वार्ता रूपी अम्लान मालाके द्वारा राजा वसुने ब्राह्मण की पूजा की क्षीरकदम्ब उपाध्याय ने समीचीन संयम को प्राप्त कर अन्तमें संन्यास - मरणके द्वारा उत्तम स्वर्ग लोक प्राप्त किया। इधर पर्वत पिताका स्थान प्राप्त करके सब दिशाओंसे आगत शिष्योंके लिये शास्त्रोंका व्याख्यान करने लगा । सूक्ष्म - बुद्धि नारद भी उसी नगर में स्थान बनाकर विद्वानोंके साथ रहने लगा और व्याख्यासे यशको धारण करने लगा अर्थात् शास्त्रोंकी व्याख्या से उसका यश सब ओर फैलने लगा ।
1
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org