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________________ [४.५९ ...पट्नाभूते 'जातिरन्द्री भवेदिव्या चक्रिणां विजवाश्रिता । परमा जातिराहंन्त्ये स्वत्मोत्या सिद्धिमीयुषाम् ॥ ३॥ मूादिष्वपि नेतव्या कल्पनेयं चतुष्टयो । पुराणहरसंमोहात्क्वचिच्च त्रितयी मता ॥४॥ कर्शयन् मूतिमात्मीयां रक्षन् मूर्तीः शरीरिणां । तपोऽधितिष्ठेद्दिव्यादिमूर्तीराप्तुमना मुनिः ॥ ५॥ स्वलक्षणमनिर्देश्यं मन्यमानो जिनेशिनां । लक्षणान्यभिसंधाय तपस्येत्कृतलक्षणः ॥ ६ ॥ म्लापयन् स्वाङ्गसौन्दयं मुनिरुग्र तपश्चरेत् । वाञ्छन् दिव्यादिसौन्दर्यमनिवार्य परं परं ॥ ७ ॥ नहीं कर परमेष्ठियों के ही जाति आदि गुणोंका सन्मान करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से वह शिष्य अहंकार आदि दुगुणों से बचकर अपने : आपका उत्थान शीघ्र ही कर सकता है)। स्वयं उत्तम जाति वाला होनेपर भी अहंकार-रहित होकर अरहन्त देवके चरणों को सेवा करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करनेसे वह भव्य दूसरे जन्म में उत्पन्न होनेपर दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार उत्तम जातियों को प्राप्त होता है ॥१-२॥ __जातिरेन्द्री-इन्द्रके दिव्या जाति होती है, चक्रवतियों के विजयाश्रिता, अरहन्त देवके परमा और मोक्षको प्राप्त हुए जीवोंके अपने आत्मा से उत्पन्न होनेवाली स्वा जाति होती है ॥३॥ . . इन चारों को कल्पना मूर्ति आदि में कर लेनी चाहिये अर्थात् जिसप्रकार जातिके दिव्या आदि चार भेद हैं उसी प्रकार मूर्ति आदिके भी समझ लेना चाहिये । परन्तु पुराणों को जानने वाले आचार्य मोह-रहित होनेसे किसी-किसी जगह तीन ही भेदोंकी कल्पना करते हैं अर्थात् सिद्धोंमें स्वा मूर्ति नहीं मानते हैं ॥४॥ जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियोंको प्राप्त करना चाहता है उसे अपना शरीर कृश करना चाहिये तथा अन्य जीवों के शरीरों की रक्षा करते हुए तपश्चरण करना चाहिये ॥५॥ इसी प्रकार अनेक लक्षण धारण करने वाला वह पुरुष अपने लक्षणों को निर्देश करने के अयोग्य मानता हआ जिनेन्द्र देवके लक्षणोंका चिन्तवन कर तपश्चरण करे ॥६।। जिनको परम्परा अनिवार्य है ऐसे दिव्य आदि सौन्दर्यो की १. महापुराणे । पर्व ३९ श्लोक १६८-२०० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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