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षट्प्राभृते
[५. १३६इन्द्रचन्द्रनागेन्द्रगच्छोत्पन्नानां तन्दुलोदककाथोदकादिसमाचारीसमायिणां श्वेतपटानां प्रायःकपटानां मायाबाहुल्यानां चतुरशीतिः संशयिनां मिथ्यात्वभेदा भवन्ति । ( सत्तट्ठी अण्णाणी ) सप्तषष्टिरज्ञानेन मोक्षं मन्वानानां मस्करपूरणमतानुसारिणां भवति । (वेणैया होंति बत्तीसा ) विनयात् मातृपितृनृपलोकादिविनयेन 'मोक्षाक्षेपिणां तापसानुसारिणां द्वात्रिंशन्मतानि भवन्ति । एवं त्रिषष्ट्यग्राणि त्रीणि शतानि मिथ्यावादिनां भवन्ति तानि त्याज्यानीत्यर्थः । १८० + ८४+ ६७ + ३२ = ३६३ । ण मुयइ पयडि अभव्वो सुठ्ठ वि 'आयणिऊण जिणधम्म । गुडदुद्धं पि पिवंता ण पण्णया णिन्विसा होति ॥१३६॥
न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्मम् ।
गुडदुग्धमपि पिबन्तः न पन्नगा निर्विषा भवन्ति ।।१३६।। (ण मुयइ पयडि अभब्वो ) न मुञ्चति प्रकृति मिथ्यात्वं अभव्यो दूरभव्यो वा लौंकादिमिथ्यादृष्टिः पापिष्ठः । ( सुठु वि आयण्णिऊण जिणधम्म ) सुष्ठ अपि आकण्यं श्रुत्वा जिनधर्म दिगम्बरशास्त्र । ( गुडदुद्धं पि पिबंता ) गुडेन मित्रं
उत्पन्न, चावलों का धोवन तथा अन्य प्रासुक जल आदिको गोचरी में लेनेवाले प्रायः माया-पूर्ण व्यवहार के धारक श्वेताम्बर अक्रियावादी हैं इनके चौरासी भेद हैं । अज्ञान से मोक्ष मानने वाले मस्कर पूरण के मता. नुयायी अज्ञान-वादी हैं, इनके सड़सठ भेद हैं और माता पिता तथा राजा आदिको विनय से मोक्षकी प्राप्ति मानने वाले तापस-मतानुयायी वैनयिक हैं, इनके बत्तीस भेद हैं । चारों मिथ्या-वादियों के मिलाकर १८० + ८४ + ६७ +३२ = ३६३ तीन सौ वेशठ भेद होते हैं, ये सब भेद त्यागने योग्य हैं ॥१३५।।
गाथार्थ-अभव्य जीव जिनधर्म को अच्छी तरह सुनकर भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है, सो ठीक ही है क्योंकि सांप गुड़ और दूधको पीते हुए भी निर्विष नहीं होते हैं ॥१३६।।
विशेषार्थ-जिस प्रकार गुड़से मिश्रित दूधको पोने पर भी सांप अपना विष नहीं छोड़ते हैं उसो प्रकार अभव्य या दूर भव्य पापी मिथ्यादृष्टि ।
१. मोक्षक्षेपिणां म०। २. समयसारे 'आयण्णि ऊण जिणधम्म' इत्यस्य स्थाने 'अज्माइ ऊणसत्याणि'
इति पाठः।
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