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________________ -५. १३७] भावप्राभृतम् ५३१ दुग्धं गुडदुग्धं पिबन्तोऽपि । ( ण पण्णया णिन्विसा होति ) न पन्नगाः सर्पा निर्विषा विषरहिता भवन्ति संजायन्ते । तथा चोक्तं बहुसत्थई जाणियइ धम्मु ण चरइ मुणेवि । दिणयर सउ जइ उग्गमइ घूहडु अंघउ तो वि ॥१॥ मिच्छत्तछण्णदिट्ठी बुद्धी रागगहगहियचित्तेहि । धम्मं जिणपण्णत्तं अभब्वजीवो ण रोचेदि ॥१३७॥ मिथ्यात्वछन्नदृष्टिः दुर्दी रागग्रहगृहीतचित्तः। धर्म जिनप्रणीतं अभव्यजीवो न रोचयति ॥१३७॥ (मिच्छत्तछण्णदिट्ठी ) मिथ्यात्वेन छन्ना आवृता दृष्टिनिलोचनं यस्य स मिथ्यात्वच्छन्नदृष्टिः । अज्ञानी मिथ्यादृष्टिः । (दुद्धी ) दुष्टा धोर्बुद्धिर्यस्य स दुर्षीः दुबुद्धिः । ( रागगहगहियचित्तेहि ) रागग्रहगृहीतचित्तैः रागो दुर्मार्गाश्रिता प्रीतिः स एव ग्रहः पिशाचः तेन गृहीतानि चित्तानि अभिप्राया रागग्रहीतचित्तानि तैः रागग्रहगृहीतचित्तः करणभूतैः नानानयदुष्टपरिणामरित्यर्थः । (धम्मं जिणपण्णत्तं ) धर्म जिनेन के वलिना प्रणीतं । ( अभव्वजीवो ण रोचेदि ) अभव्यजीवो रत्नत्रयायोग्यो जीव आत्मा न रोचयति न श्रद्दधाति । जोव जिनधर्मको अच्छी तरह सुनकर भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। जैसा कि कहा है बहुसत्थई-बहुत शास्त्रों को जानकर भी अभव्य जीव धर्मका आचरण नहीं करता है सो ठोक ही है क्योंकि यदि सैकड़ों सूर्य उदित होते हैं ता. भो उल्लू अन्धा ही रहता है ।।१३६॥ गाथार्थ-जिसकी दृष्टि मिथ्यात्व से आच्छादित हो रही है ऐसा दुबैद्धि अभव्य जीव रागरूपी पिशाच से गृहीत-चित्त होनेके कारण जिनप्रणोत धर्म-जैन को श्रद्धा नहीं करता ।।१३७॥ . विशेषार्थ-रत्नत्रय की प्राप्ति की योग्यता से रहित अभव्य जीवको दृष्टि सदा मिथ्यात्व से आच्छादित रहती है, उसकी बुद्धि अर्थात् विचारशक्ति दूषित रहती है तथा उसका चित्त सदा राग रूपी पिशाच से ग्रस्त रहता है, इसो कारण वह केवलि जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट जिनधर्म की अखा नहीं करता है ॥१३७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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