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बोधप्राभूतम्
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लक्षण द्वेषरहिता अथवा वातपित्तश्लेष्मादिदोषरहितस्य प्रव्रज्या भवतीति निर्दोषा । ( णिम्मम ) निर्ममा ममेति शब्दोऽव्ययः निर्गतं ममेति यस्यां प्रव्रज्यायां सा निर्ममा, अथवा मश्च मा च ममे निर्गते ममे द्वेयस्याः सा निर्ममा मद्यमांसमधु मकारत्रयरहिता लक्ष्मीस्वोकाररहिता चेत्यर्थः । तथा चोक्तम् —
अकिञ्चनोऽहमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः ।
योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥ १ ॥
( णिरहंकारा) अहंकाररहिता कर्मोदयप्रधाना सुखं वा दुःखं वा जीवस्य कर्मोदयेन भवति मयेदं कृतमित्यहङ्कारो न कर्तव्य इत्यर्थः । तथाचोक्तं समन्तभद्रेण ताकिकशिरोमणिना -
जिसमें से मम ममता भाव निकल गया हो वह निर्ममा है। जिन दीक्षा में किसी बाह्य पदार्थ के साथ ममता नहीं रहती है। अथवा नामके एक देशसे सर्व देशका ग्रहण होता है इसलिये 'म' से मद्यमांस और मधु इन तीनों काका ग्रहण होता है और 'मा' का अर्थ लक्ष्मी है इसलिये म और मा शब्दका द्वन्द्व समास कर निर् शब्दके साथ वहुव्रीहि समास करने पर निर्माका अर्थ होता है कि जो तीन मकारके सेवन तथा लक्ष्मी के स्वीकार से रहित हो ( मश्च मा च ममे, निगते ममे यम्याः सा निर्ममा ) । जिन दीक्षा में रञ्चमात्र लक्ष्मीका स्वीकार करना सर्वथा निषिद्ध है । जैसा कि कहा है
अकिंचनोऽह - 'मैं अकिञ्चन हूँ' - मेरा कुछ परिग्रह नहीं, ऐसी भावना करता हुआ तू चुपचाप बैठ । इस भावनासे तू तीन लोकका अधिपति बन सकता है । हे साधो ! मैंने तेरे लिये परमात्माका वह रहस्य बतलाया है जिसे योगी ही जान सकते हैं।
'णिरहंकारा' इस प्राकृत पदकी छाया 'निरहङ्कारा' और 'निरघं 'कारात्' की है इसलिये इसका अर्थ इस प्रकार है जो निरहङ्कारा अहंकार से रहित है । जिन दीक्षा कर्मोदयको प्रधान मानती है अर्थात् जीवको जो सुख अथवा दुःख होता है वह कर्मोदय से ही होता है इसलिये 'मैंने यह किया' इस प्रकारका अहंकार नहीं करना चाहिये। जैसा कि तार्किक - शिरोमणि श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है
१. आत्मानुशासने गुणभद्रस्य । २. कर्तव्यमित्यर्थः म० ।
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