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________________ षट्प्रामृते [४.४९'अलङ्कपशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा । अनीश्वरो जन्तुरहक्रियातः संहत्य कार्येष्वितिं साध्वस्वादि ॥१॥ . संहत्य कार्येष्विति कोऽर्थः ? सुखादि-कार्योत्पादकेषु मन्त्र-तन्त्रादि-सहकारिकारणेषु मिलित्वा । अथवा णिरहंकारा-णिरह-निरह-निरघं निष्पापं सर्वसावद्ययोगरहितत्वं यथा भवत्वेवं-कारात् । कस्य शुद्धबुद्धकस्वभावस्य निजात्मस्वरूपस्य आरात्समीपतो वर्तते कारात्, चिच्चमत्कार-लक्षण-ज्ञायकैक-स्वभावटकोत्कीर्णनिजात्मनि तल्लीना प्रव्रज्या भवतीति ज्ञातव्यम् । 'पापक्रियाविरमणं चरणं । अलय-अन्तरंग और वहिरंग-उपादान और निमित्त दोनों कारणों से प्रगट हुए कार्य ही जिसकी पहिचान है, ऐसी यह भवितव्यता-होनहार अलङ्घयशक्ति है, इसकी सामर्थ्यको कोई लाँघ नहीं सकता है। अहंकार से पीड़ित हुआ यह प्राणी मिलकर भी कार्योंके विषयमें असमर्थ रहता हैजब तक जिस कार्यको भवितव्यता नहीं आ पहुंची है तब तक यह प्राणी अकेला नहीं अनेक के साथ मिलकर भी कार्य करनेमें असमर्थ ही रहता है। हे भगवन् ! ऐसा आपने ठीक ही कहा है। ' प्रश्न-'संहत्य कार्येषु' इस पदका क्या अर्थ है? उत्तर-सुख आदि कार्योंके उत्पादक मन्त्रतन्त्र आदि सहकारी कारणोंमें मिल कर। अब 'निरघं कारात्' छायाके अनुसार व्याख्या करते हैं । प्राकृत में 'घ' के स्थान में 'ह' हो जाता है इसलिये 'णिरह' की छाया 'निरघ' की गई है । और कारात् शब्दके अन्त हलका प्राकृतमें लोप कर कारा शब्द बना था उसे संस्कृतमें 'कारात्' स्वीकृत किया गया। इस तरह निरघं और कारात् ये दो शब्द हैं इनमें निरघं शब्द क्रिया-विशेषण है जिसका अर्थ होता है निरघं अर्थात् निष्पाप । 'क' शब्दका अर्थ है शुद्धबुद्ध-वीतराग और सर्वज्ञता स्वभावको लिये हए निज आत्माका स्वरूप । आरात् अव्यय समीप अर्थमें आता है इसलिये 'कस्य आरात् कारात्' इस समास के अनुसार कारात् का अर्थ हुआ आत्मस्वरूपके समीप-वर्ती । इस तरह निरघं कारात् शब्दका सामूहिक अर्थ यह हुआ कि जो समस्त पाप सहित योगोंका त्यागकर आत्मस्वरूप के निकट है अर्थात् आत्मस्वरूप की प्राप्ति का प्रमुख कारण है। जिनदीक्षा, चिच्चमत्कार लक्षण मात्र ज्ञायक १. वृहत्स्वयंभूस्तोत्रे। २. साध्ववादीः क०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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