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________________ -४. ५९ ] बोधप्राभृतम् २२१ किलेति' वचनात् । ( पव्वज्जा ) प्रव्रज्या दीक्षा । ( एरिसा ) ईदृशी उक्तलक्षणा । ( भणिया ) गौतमस्वामिना प्रतिपादिता ॥ ४९ ॥ णिण्णेहा जिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिक्कलुसा । णिब्भय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५० ॥ निःस्नेहा निल्लभा निर्मोहा निर्विकारा निष्कलुषा । निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ ( णिणेहा ) निःस्नेहा पुत्रकलत्रमित्रादिस्नेहरहिता, अथवा तैलाद्यभ्यङ्गरहिता निःस्नेहा । ( णिल्लोहा ' ) हे मुने ! हे तपस्विन् ! तवेदं वस्तु वस्त्रादिकं दास्यामि मम गृहे भिक्षा गृह्यतां भवतेति लोभरहिता, अथवा सुवर्णरजतताम्रायस्त्रपुरांगादिभाजनविवर्जिता निर्लोभा । ( णिम्मोहा ) दर्शन मोहो मिथ्यात्वं स्वभाव से निरन्तर युक्त निजस्वरूप में लोन होती है । शास्त्रों में ऐसा कहा भी है कि 'पापक्रिया से विरत होना चारित्र है " गौतमस्वामी ने जिन -दीक्षा का स्वरूप ऐसा कहा है ||४९|| गाथार्थ - जो स्नेह रहित हो, लोभ रहित हो, मोह रहित हो, अथवा निश्चित प्रमाण के तर्कसे सहित हो, विकार रहित हो अथवा निश्चित विचार से सहित हो, कलुषता-रहित हो, निर्भय हो और निराश भाव से सहित हो, आगामी आशा से रहित हो वह जिनदीक्षा कही गई है ॥५०॥ विशेषार्थ - स्नेहका अर्थ पुत्र स्त्री तथा मित्र आदिका प्रेम और तैल आदिका मर्दन है | जिनदीक्षा निःस्नेह होती है - पुत्र स्त्री मित्र आदिके स्नेह से रहित होती है अथवा तेल आदि सचिक्कण पदार्थों के मालिशसे शून्य होती है । जिनदीक्षा निर्लोभ - लोभ रहित होती है अर्थात् हे मुनिराज ! हे तपस्विन्! मैं तुम्हारे लिये यह वस्त्रादिक दूंगा आप हमारे घर पर भिक्षा ग्रहण कीजिये, इस प्रकार के लोभ से रहित है अथवा सोना, चाँदी, ताम्बा, लोहा राँगा आदिके पात्रोंसे हित होनेके कारण निर्लोभ है। जिनदीक्षा निर्मोह है- मोहसे रहित है। दर्शन-मोहको १. नि० टी० । २. हिसानृतचीर्येभ्यो पापप्रणालिकाको विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ मैथुन से वापरिग्रहाभ्याञ्च । Jain Education International - रत्नकरण्ड श्रावकाचरे समन्तभद्रस्य For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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