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षट्प्राभूते
[ ४.५०
त्रविधं चारित्र मोहः पंचविंशतिप्रकारस्तद्वाभ्यामपि रहिता निर्मोहा, अथवा निश्चिताया अकलंकदेव समन्तभद्रविद्यानन्दिप्रभाचंद्रादिभिस्ताकिकनिर्धारिताया माया प्रत्यक्ष परोक्षलक्षणोपलक्षिताया प्रमाणद्वयस्य ऊहो वितक विचारणा यस्यां प्रव्रज्यायां सा निर्मोहा । ( णिब्वियार) निर्विकारा वस्त्राभरणादिवेषविकाररहिता निर्विकारा, अथवा निश्चितो विचारो विवेको भेदज्ञानं यस्यां सा निर्विचारा आत्मा पृथक् कर्म पृथक् इति विवेकोपेता उक्तं च
मानुष्यं सत्कुले जन्म लक्ष्मीबुद्धिः कृतज्ञता । विवेकेन विना सर्व सदप्येतन्न किंचन ॥ १ ॥ अन्यञ्च -
आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्तं मतं मे । भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत् ॥१॥
मिथ्यात्व कहते हैं उसके गृहीत अगृहीत और सांशयिकके भेदसे तीन भेद हैं अथवा मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिके भेद से तीन भेद हैं । चारित्र मोह पच्चीस प्रकारका है जिनदीक्षा दोनों प्रकारके मोहों से रहित है । अथवा 'निश्चिता मा निमा, तस्या ऊहो यस्यां सा निमोहा' इस समास के अनुसार अकलंक देव समन्तभद्र, विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र आदि तार्किक विद्वानोंके द्वारा निर्धारित प्रत्यक्ष परोक्ष भेदों से युक्त दोनों प्रमाणोंके ऊह-वितर्क अथवा विचारणासे सहित है। निर्विकार हैवस्त्र आभूषण आदिसे निर्मित वेषके विकारसे रहित है अथवा 'निश्चितो विचारो यस्यां सा' इस समास के अनुसार निश्चित विचार - विवेक अथवा भेदज्ञानसे सहित है। क्योंकि जिन-दीक्षा 'आत्मा पृथक् है और कर्म पृथक् है।' इस विवेक से सहित होती है। कहा भी है
मानुष्यं - मनुष्य पर्याय, उत्तमकुल में जन्म, लक्ष्मी, बुद्धि और कृतज्ञता ये सब रहते हुए भी एक विवेक के बिना कुछ नहीं है ।
और भी कहा है
आत्मा - आत्मा भिन्न है, उसके साथ लगा हुआ कर्म भिन्न है, दोनोंकी निकटता से जो विकार होता है वह भी भिन्न है, काल क्षेत्र आदि जो कुछ है वह भी भिन्न है, तथा अपने अपने गुणोंकी कला से प्रलंकृत यह सब कुछ भिन्न-भिन्न है ।
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