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बोधप्राभृतम्
अन्यच्च बहुवाग्जाले निबद्धं युक्ति बाधितं । पारिव्राज्यं परित्याज्यं ग्राह्यं चेदमनुत्तरं ।। ३५ ।। पंचत्रिशच्छ्लोकैः प्रव्रज्या वर्णिता । इति श्रीबोधप्राभृते प्रव्रज्याधिकार एकादशः समाप्तः ॥ ११ ॥ अथेदानीं बोधाप्राभृतस्य चूलिकां गाथात्रयेण निरूपयन्ति — रूवत्थं सुद्धत्थं जिणमग्गे जिणवरेह जह भणियं । भव्वजणबोहणत्थं छक्का हियंकरं उत्तं ॥ ६० ॥
हुआ तपस्या धारण करता है अर्थात् दीक्षा ग्रहण करता है उसीके वास्तविक पारिव्रज्य होता है ||३४|| अनेक प्रकार के वचनों के जाल में निबद्ध तथा युक्ति से बाधित अन्य लोगोंके पारिव्रज्य को छोड़कर इसी सर्वोत्कृष्ट पारिव्रज्य को ग्रहण करना चाहिये || ३५ || इस प्रकार पैंतीस श्लोकों के द्वारा प्रव्रज्या का वर्णन किया गया है* ॥ ५९ ॥
इस तरह श्री बोधप्राभृत में प्रव्रज्याधिकार नामका ग्यारहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।
आगे तीन गाथाओंके द्वारा बोधप्राभृतकी चूलिकाका निरूपण करते हैं
गाथार्थ - जिनमार्ग में जिनेन्द्र देवने जिस प्रकार वर्णन किया है उसी
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* पं० जयचन्द्रजी ने 'आयत्तण गुणपज्जत्ता' की छाया 'आयतनगुणपर्याप्ता' स्वीकृत की है तथा 'बहुविसुद्ध सम्मत्त' इसे 'जिणमग्गे' का विशेषण माना है । ऐसा मान कर उन्होंने इस गाथाका अर्थ निम्न प्रकार किया हैऐसे पूर्वोक्त प्रकार आयतन जो दीक्षा का ठिकाना निग्रन्थ मुनि ताके गुण जे ते हैं तिनकरि पज्जत्ता कहिये परिपूर्ण, बहुरि अन्य भी जे बहुत दीक्षा में चाहिये ते गुण जामें होंय ऐसी प्रव्रज्या जिनमार्ग में जैसे ख्यात कहिये प्रसिद्ध है तैसे संक्षेप करि कही, कैसा है जिनमार्ग, विशुद्ध है सम्यक्त्व जा अतिचार रहित सम्यक्त्व जामें पाइये है, बहुरि कैसा है जिनमाग निर्ग्रन्थरूप है
मैं बाह्य अन्तरपरिग्रह नही है । भावार्थ - ऐसी पूर्वोक्त प्रव्रज्या निर्मल सम्यक्त्व सहित निर्ग्रन्थ रूप जिनमार्ग विषै कही है, अन्य नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक, पातंजलि बौद्ध आदिक मतमें नांही है, बहुरि काल दोष तैं जैनमत तैं च्युत भये अर जैनी कहावें ऐसे श्वेताम्बर आदिक तिनिमें भी नहीं हैं ॥
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