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________________ २४२ षट्प्राभृते रूपस्थं शुद्धयर्थं जिनमार्गे जिनवरेयथा भणितम् । भव्यजनबोधनार्थं षट्कार्याहितंकरं उक्तम् ॥ ( रूवत्थं सुद्धत्थं ) रूपस्थं निर्ग्रन्थरूपस्थितमाचरणं मयोक्तमिति सम्बन्धः । किमर्थं भणितं, सुद्धत्थं शुद्धयर्थं कर्मक्षयनिमित्तं । ( जिणमग्गे जिणवरेहि जह भणियं ) जिनमार्गे जिनशासने जिनवरैर्तीर्थ करपरमदेवैर्गौतमान्तगणधर देवैश्च यथा येन प्रकारेण भणितं । ( भव्वजण बोहणत्थं ) आसन्न भव्य जीव सम्बोधनार्थं । ( छक्काय हियंकरं उत्त ) षटुकाय हितंकरं सर्वजीवदयाप्रतिपालनार्थ उक्तं निरूपितम् ।। ६० ।। सुत्तेसु जं जिणे कहियं । सीसेण य भद्द बाहुस्स ॥ ६१॥ सद्द वियारो हुओ भासा सो तह कहियं णायं शब्दविकारो भूतः भाषासूत्रेषु यत् जिनेन कथितम् । तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रबाहोः ॥ ( सद्दवियारो हूओ ) शब्दविकारो भूतोऽर्हध्वनिर्गतः ( भासामुत्तेसु जं जिणे कहियं ) सर्वार्धमागधीभाषासूत्रेषु यज्जिनेन कथितं श्रीवीरेणार्थरूपं शास्त्रं [ ४. ६१ प्रकार छह काय के जीवोंका हित करने वाला यह निग्रन्थ रूपका आचरण कर्मक्षय के निमित्त मैंने भव्यजीवोंको संबोधने के लिये कहा है ॥ ६० ॥ विशेषार्थ - जिन शासन में तीर्थंकर परमदेव अपना गौतमान्त गणधरों ने जिस प्रकार कहा है उसी प्रकार निकट भव्य जीवोंको सम्बोधने के लिये छहकाय के जीवोंका हित करने वाला यह निर्ग्रन्थमुद्राधारी मुनिका आचरण मैंने कर्मक्षय रूप शुद्धिके प्रयोजन से कहा है || ६० || गाथार्थ - शब्द विकार रूप परिणत भाषा सूत्रों में जिनेन्द्र भगवान् ने जो कहा था भद्रबाहुके शिष्य ने उसे वैसा ही कहा तथा जाना है ।। ६१ ।। विशेषार्थ - अरहन्त भगवान् की दिव्यध्वनि से जो पदार्थ निकला था वह शब्द विकार रूप परिणत हुआ अर्थात् गणधरों ने उसकी शास्त्र रूप रचना की । भगवान् की दिव्यध्वनि सर्वार्धमागधी भाषा रूप थी । उसमें जिनेन्द्र भगवान् ने ( वर्तमान की अपेक्षा अन्तिम तीर्थंकर श्री महा १. कुत्ते ग० । २. मार्ण म० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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