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________________ १९२ षट्प्राभृते [४.३२प्रत्येकं सहस्रपत्राणि पद्मरागमणिकेसराणि अर्धयोजनकानि भवन्ति । सर्वसस्य - निष्पत्तियुता भूमिर्भवति । शरत्कालसरोवरसदृशमाकाशं निर्मलं भवति । दिशः सर्वा अपि तिमिरकां धूम्रतां त्यजन्ति तमो मुञ्चन्ति शलभा अपि दिशो नाच्छादयन्ति धूलिनॊड्डीयते । ज्योतिष्कान् व्यन्तरान् कल्पवासिदेवान् भवनवासिन आह्वयन्ति महापूजार्थं त्वरितमागच्छन्तु भवन्त इति । अरसहस्रं रत्नमयं रवितेजस्तिरस्कारकं धर्मचक्रं अग्रेऽग्रे गगने निराधारं गच्छति । अष्ट मङ्गलानि भवन्ति । तानि कानि ? छत्र-ध्वज-दर्पण-कलशचामर भृङ्गार-ताल-सुप्रतिष्टक इत्यष्टमङ्गलानि चतुर्दशोऽतिशयाः । एते चतुर्दशातिशया देवोपनीता भवन्ति । तथाष्टप्रातिहार्याणि भवन्ति । कानि तानीत्याह प्रकट होते हैं जिनमें सब ऋतुओंके फलोंके गुच्छे, किसलय और फूल दिखाई देते हैं। ४ भूमि दर्पणतल के समान मनोहर और रत्नमयी हो जाती है ५ पीछेको ओरसे शीतल मन्द और सुगन्धित वायु आती है । सब लोगोंको परम आनन्द होता है। ७ आगे आगे एक योजन तक सुगन्ध से मिश्रित वायु पृथिवी को स्वयं झाड़ती है और धूलि, ,कण्टक, तृण, कोड़े, कंकड़ और पत्थरोंको साफ करती रहती है। ८ स्तनित कुमार देव गन्धोदक की वर्षा करते हैं, ९ भगवान् के पांवके नीचे एक, आगे सात और पीछे सात । ये कमल एक योजन प्रमाण होते हैं। ये सब कमल पमराग मणिमय केशरसे युक्त तथा आधायोजन विस्तार वाले होते हैं। १० भूमि सब प्रकारके अनाजोंकी उत्पत्ति से सहित होती है। ११ आकाश शरद् ऋतुके सरोवरके समान निर्मल होता है । १२ सब दिशाएं तिमिरिकाधुन्द, धम्रता और अन्धकार को छोड़कर निर्मल हो जाती हैं, टिड्डियां भी दिशाओं को आच्छादित नहीं करती और न धलि ही उड़ती है। सब दिशाएं ज्योतिष्क, व्यन्तर, कल्पवासी और भवनवासो देवोंको यह कहकर बुलाती हैं कि आप लोग शीघ्र ही भगवान् की महापूजाके लिये आवें । १३ आगे-आगे आकाश में हजार आरोंसे युक्त, रत्नमय, तथा सूर्यके तेजको तिरस्कृत करनेवाला धर्म-चक्र आकाशमें निराधार चलता है। १४ छत्र, ध्वजा, दर्पण, कलश, चामर, झारी, तालपत्र, और ठौना ये आठ मङ्गल द्रव्य होते हैं, यह चौदहवां अतिशय है। ये चौदह अतिशय देवोपनीत होते हैं । इनके सिवाय तीर्थकर-अरहन्त भगवान्के आठ प्रतिहार्य होते हैं। प्रश्न-वे आठ प्रतिहार्य कौन हैं ? उत्तर-कहते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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