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षट्माभृते
[६.२८मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण । मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ॥२८॥ मिथ्यात्वमज्ञानं पापं पुण्यं च त्यक्त्वा त्रिवेधेन ।
मौनव्रतेन योगी योगस्थो द्योतयति आत्मानम् ॥ २८॥ (मिच्छत्तं अण्णाणं ) मिथ्यात्वं बौद्धवैशेषिकचार्वाककणभक्षकापिलभट्टवेदा- . न्तप्राभाकरश्वेतपटगौपुच्छिकयापनीयद्रामिलनिष्पिच्छाद्यनेककान्ताद्याश्रितमंत, अज्ञानं मस्करपूरणमतं । ( पावं पुण्णं चएवि तिविहेण ) पापं पंचप्रकार प्राणातिपातानृतचौर्यमैथुनपरिग्रहरात्रिभोजनादिकं सप्तव्यसनादिलक्षणं च, पुण्यं शुभपुद्गलग्रहणलक्षणं स्वदुःखसहनं इत्यादिकं त्यक्त्वा परिहृत्य त्रिविधेन मनोवचनकाययोगप्रकारेण । ( मोणन्वएण जोई) मौनव्रतेन वाग्व्यापाररहिततया योगी दिगम्बरः । ( जोयत्यो ) योगस्थितः शुद्धोपयोगतल्लीनः ( जीयए अप्पा ) योतयति ध्यायत्यात्मानं शरीरप्रमाण निजजीवस्वरूपं ।
प्रत्यय होकर हुई है। 'ध्याने तिष्ठतीति ध्यानस्थः' यह उसकी व्युत्पत्ति है ॥२७॥
गाथार्थ-मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्यको मन वचन काय रूप त्रिविध योगों से जोड़कर जो योगी मौन व्रतसे ध्यानस्थ होता है वही आत्माको योतित करता है-प्रकाशित करता है-आत्मा का साक्षात्कार करता है ॥२८॥
विशेषार्थ-बौद्ध, वैशेषिक, चार्वाक, नैयायिक, सांख्य, मीमांसक, वेदान्त, प्रभाकर (मीमांसकका एक भेद), श्वेताम्बर, गोपुच्छिक, यापनीय, द्वामिल और निष्पिच्छ आदि अनेक एकान्तवादियों के मत मिथ्यात्व कहलाते हैं । मस्कर-पूरण का मत अज्ञान नाम से प्रसिद्ध है । हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन तथा सप्त व्यसन आदि पाप कहलाते हैं। शुभ-पुद्गलों-पुण्य कर्म-वर्गणाओं का ग्रहण करानेवाला कायक्लेश आदि पुण्य कहलाता है। इन सबका त्रिविध-मन वचन काय रूप योगोंके प्रकार से छोड़कर मौनव्रत से जो योगी योगस्थ होता है अर्थात् शुद्धोपयोग में तल्लीन होता है वह शरीर-प्रमाण आत्मा का ध्यान करता है ॥२८॥
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