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________________ -६.४८ ] मोक्षप्राभृतम् ६२१ जिणवरुद्द्द्दिट्ठा ) नियमेन निश्चयेन, कथंभूता जिनमुद्रा ? जिनवरोद्दिष्टा केवलि -- प्रतिपादिता । तल्लक्षणं पूर्वमेवोक्तं वर्तते । ( सिविणे विण रुच्चइ पुण ) सा जिनमुद्रा जीवस्य स्वप्नेऽपि निद्रायामपि न रोचते । रुचधातोः प्रयोगे चतुर्थी प्रोक्ता "यस्मै दित्सा रोचते धारयते वा तत्संप्रदानं" इति वचनात् संप्रदाने चतुर्थी तदयुक्त, कस्मादिति चेत् ? यदा रोचते तदा संप्रदानं यदा तु न रोचते तदा षष्ठीप्रयोग एव । स्वप्नेऽपि न रोचते पुनर्जीवस्येति सम्बन्ध: । ( जीवा अछंति भवगहणे ) येन कारणेन जिनमुद्रा न रोचते भावचारित्रं भावचारित्रमिति लौंकादिभिराम्रेड्यते तेनैव कारणेन जीत्रास्तिष्ठन्ति भवगहने संसारवने । रुद्रादिवत् -- भ्रष्ट निमुद्रा नरकादौ पतन्ति । परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण । नादियदि णवं कम्मं णिदिट्ठ जिनवरिदेहि ॥ ४८ ॥ परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलदलोभेन । नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रः ॥ ४८ ॥ ( परमप्पय झायंतो ) परमात्मानं निजात्मस्वरूपं ध्यायन् । ( जोई मुच्चे इ मलदलोहेण ) योगी ध्यानवान् मुनिर्मुच्यते, परिह्रियते केन ? मलदलोभेन मल पापं ददातीति मलदः स चासौ लोभो धनाकांक्षा तेन मलदलोभेन । ( णादियदि णकं कम्मं ) लोभरहितो मुनिर्नाद्रियते न बध्नाति, नवं कर्म अभिनव पापं पूर्वोपार्जितं की प्राप्ति होना संभव नहीं है। जिनमुद्रा का यथार्थं रूप केवली भगवान् ने प्रतिपादित किया है। जिन जीवों को यह जिनमुद्रा साक्षात् तो दूर रही स्वप्न में भी नहीं रुचतो वे इस संसार रूप अटवी में ही विद्यमान रहते हैं । का आदि लोग बार बार भावचारित्र, भावचारित्रकी ही रट लगाते परन्तु भावचारित्र के अनुसार जिस जिनमुद्रा की आवश्यकता है उसे स्वप्न में भी अच्छा नहीं समझते - आदर की दृष्टि से नहीं देखते तब सिद्धिकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? जो जीव जिनमुद्रासे भ्रष्ट हो जाते हैं वे रुद्रादि के समान नरक आदि कुगतियों में पड़ते हैं । गाथा - परमात्मा का ध्यान करने वाला योगी पाप दायक लोभ से मुक्त हो जाता है और नवीन कर्म बन्धको नहीं करता ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ॥ ४८ ॥ विशेषार्थ - परमात्मा निज आत्म स्वरूप को कहते हैं उसका ध्यान करने वाला मुनि, पाप उत्पन्न करने वाले लोभ से छूट जाता है लोभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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