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षट्नानृते . [६. ४९-५०तु स्वयमेव क्षीयते । ( णिद्दिटुं जिणवरिंदेहि ) निर्दिष्टं कथितं, जिनवरेन्द्रः जिनवरा एव इन्द्रास्त्रिभुवनप्रभवस्तजिनवरेन्द्रः सर्वज्ञवीतरागैरिति शेषः । .
होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईओ। झायंतो. अप्पाणं परमपयं पावए जोई ॥४९॥
भूत्वा दृढचरित्रः दृढसम्यक्त्वेन भावितमतिः ।
ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ॥४९॥ . . ( होऊण दिढचरित्तो) दृढचरित्रोऽचलितचारित्रो भूत्वा । ( दिढसम्मत्तेण भावियमईओ) दृढसम्यक्त्वेन चलमलिनतारहितसम्यग्दर्शनेन भावितमतिस्तु वासितमनाः। ( झायंतो अप्पाणं ) ज्ञानबलेन ध्यायन्नात्मान । ( परमपयं पावए जोई ) परमपदं केवलनानं निर्वाणं च प्राप्नोति, योगी भेदज्ञानवान् मुनिः ।
चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो। सो रागरोसरहिओ जीवस्स अबण्णपरिणामो ॥५०॥
चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः स भवति आत्मसमभावः ।
स रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः ॥१०॥ manwwwmmmm रहित मनुष्य नवीन कर्मबन्ध को नहीं करता है किन्तु उसके पूर्वोपार्जित कर्म अयं क्षीण हो जाते हैं ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ।। ४८ ॥
गाथाथ-योगी-ध्यानस्थ मुनि, दढचारित्र का धारक तथा दृढ़सम्यक्त्व से वासित हृदय होकर आत्मा का ध्यान करता हुआ परम पदको प्राप्त होता है । ४९ ॥
विशेषार्थ-जो दृढ़चारित्र है अर्थात् चारित्रसे कभी विचलित नहीं होता और दृढ़सम्यक्त्वसे अर्थात् चल मलिनता आदि दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शनसे जिसकी बुद्धि सुसंस्कारित है ऐसा योगी आत्मा का ध्यान करता हुआ परमपद-केवलज्ञान और निर्वाण को प्राप्त होता
गाथार्थ-चारित्र आत्मा का धर्म है, अर्थात् चारित्र आत्मा के धर्म को कहते हैं, धर्म आत्माका समभाव है अर्थात् आत्माके समभाव को धर्म कहते हैं, और समभाव राग द्वेष से रहित जीवका अभिन्न परिणाम है अर्थात् रागद्वेष से रहित जीवके अभिन्न परिणामको समभाव कहते
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