________________
-६. ४६]
मोक्षप्राभृतम्
६१५ कारकारकं समनीकं चकार । ज्वालिन्या विद्यया ज्वालयित्वा रिपु भस्मयामास । त्रिपुरं गृहीत्वा देवदारुः सुखी बभूव । जामातरं त्रिपुरं नीत्वा तस्मै चन्द्र.
खराय अष्टा अपि कन्या अदित । तास्तन्मैथुनमसहमाना अष्टा अपि मृताः। देवदारुखगस्याष्टचन्द्रः सुहृद्भिः शत्रुमारकस्य भूतेशस्य मालतीमाला इव कोमल. भुजाः पंचशतकन्याः पुनर्दत्ताः। ता अपि खण्डपरशोविषमरतेन दिनं दिनं प्रति भुक्ता एककाः सर्वा अपि मनुः। तदा तासां मरणे गिरीशश्चिन्ताव्याकुलितमनाः स्थितः । अथ गौर्या सह यथा संयोगो जातस्तत्कथां कथयामि शृणुत भव्याः !। पूर्वभवे खल्वेका क्षान्तिका देशान्तरं यान्ती मार्गश्रमश्रान्ता धीवरेण नदीमुत्ता रिता। तस्य मत्स्यबन्धस्य शीतलशरीरस्पर्शेन सा आप्यायिता । तया विषयाशया कर्मवशेन निदानं कृतं-अन्यस्मिन् भवे प्रकटितपरमस्नेहोऽयं मम भर्ता भविष्यतीति । ईदृशं
किया था वह सब समाचार प्रारम्भ से लेकर रुद्र को सुनाया। रुद्र ने कहा-राजन् ! तुम जो कह रहे हो वह मैं अभी सिद्ध किये देता हूँ। एक त्रिपुर के राजा से क्या मैं तो तीनों जगत् का संहार कर सकता है।
तदनन्तर रोष से भरा देव दारु निर्भय होकर नाना छत्र ध्वजा चमर और सेना से सहित रुद्रको साथ लेकर वहाँ गया। उसने नगर को घेर लिया। विद्युज्जिह्व बाहर निकला रुद्र ने उसके साथ तीन लोक के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करने वाला युद्ध किया तथा ज्वालिनी विद्यासे शत्रु
को जलाकर भस्म कर दिया। देवदारु त्रिपुर को लेकर सुखी हुआ। - तदनन्तर जमाता को त्रिपुर ले जाकर उसने आठों कन्याएँ उसके लिये दे
दीं। परन्तु वे आठों कन्याएँ उसके मैथुन को सहन नहीं कर सकीं अतः मर गईं । देवदारु विद्याधरके अष्ट चन्द्र नामक मित्र थे। उनकी मालती की माला के समान कोमल भुजाओं वाली पाँचसौ कन्याएं थीं। शत्रु को नष्ट करने वाले रुद्र के लिये उन्होंने वे पाँचसौ कन्याएं पुनः दे दी परन्तु रुद्रके विषम रत के कारण एक-एक दिनके उपभोग से एक-एक कर वे सब मर गई। उन सबके मर जाने पर रुद्र चिन्ता से व्याकुलचित्त हो उठा। अब गौरी के साथ जिस प्रकार संयोग हुआ वह कथा कहता हूँ हे भव्य जीवो ! सुनो- पूर्व भव में एक साध्वी दूसरे देश को जाती हुए मार्ग के श्रम से थक गई। एक धीवर ने उसे उस नदी से पार उतारा। उस धीवर के शीतल शरीर के स्पर्श से वह साध्वी संतुष्ट हई तथा विषय की आशा से कर्मवश निदान कर बैठी कि अन्यभव में यह धीवर परम स्नेह को प्रकट करने
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org