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भावप्राभृतम्
(खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू ) क्षितिशयनं भूमिशयनं तृणकाष्ठशिलास्थंडिलशयनं, द्विविधः संयमो यस्मिन् जिनलगे तद्विविधसंयमं । इंद्रियसंयमः पंचेंद्रियसंकोचो मनःसंकोचश्चेति षड्विधः संयमः प्राणसंयमः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणपंचस्थावररक्षणं द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियचतुःप्रकारत्रसजीवरक्षणलक्षणः
षड्विधः प्राणसंयमः । भिक्खू हे भिक्षो ! अहो तपस्विन् ! अथवा भिक्षाभोजनं कुर्वन् उद्दण्डचर्यायां पर्यटन् भिक्षुजिनलिंगमुच्यते । सा भिक्षा पंचविधा -
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जिन लिङ्ग में उक्त पाँचों प्रकारके वस्त्रोंका तथा उपलक्षण से अन्य किसी भी प्रकार के वस्त्रोंका त्याग होता है । भूमि, तृण, काष्ठ, शिला तथा चबूतरा आदि पर शयन किया जाता है, इन्द्रिय-संयम और प्राण - संयम के भेद से दो प्रकार के संयम का पालन किया जाता है । पाँच इन्द्रियों और मनका संकोच करना छह प्रकार का इन्द्रिय संयम है तथा पृथिवी कायिक, जल कायिक, अग्नि कायिक, वायुकायिक, वनस्पति कायिक पाँच स्थावरों और द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंकी रक्षा करना छह प्रकार का प्राण संयम है । भिक्खू पद सम्बोधनान्त है इसलिये हे भिक्षो ! हे तपस्विन् ऐसा अर्थ करना चाहिये । अथवा प्रथमान्त मानकर ऐसा अर्थ करना चाहिये कि जिसमें भिक्षु उद्दण्डचर्या से भ्रमण करता हुआ भिक्षा भोजन करता है । वह भिक्षा पाँच प्रकार की होती है- १ अक्षम्रक्षण, २ गर्त पूरण, ३ भ्रामरी, ४ गोचरी और ५ उदराग्नि विध्यापन | इनका स्वरूप इस प्रकार है
जिस प्रकार कोई वैश्य रत्न आदि से भरी हुई गाड़ी को किसी प्रकार की चिकनाई से ओंग कर उसे अपने इष्ट स्थान तक ले जाता है उसी प्रकार मुनि सम्यग्दर्शनादि रत्नों से भरी हुई शरीर रूपी गाड़ीको सरस अथवा नीरस आहार से स्वस्थ कर मोक्ष स्थान तक ले जाता है। इस वृत्तिको अक्ष- प्रक्षण कहते हैं ।
जिस प्रकार गृहस्थ अपने मकान के भीतर के गर्तको किसी भी वस्तु से भरकर सम कर लेता है उसी प्रकार मुनि भी अपने उदर रूपी गर्तको सरस अथवा नीरस किसी भी प्रकार के शुद्ध आहार से भरकर सम कर लेते हैं, इस वृत्ति को गर्त पूरण वृत्ति कहते हैं ।
जिस प्रकार भ्रमर फूलों से रस लेता है परन्तु उन्हें किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाता, इसी प्रकार मुनि गृहस्थ दाताओंसे आहार लेता है परन्तु उन्हें किसी प्रकारकी पीड़ा नहीं पहुंचाता, इस वृत्तिको भ्रामरी -
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