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षट्प्राभृते
[ ६.८८-८९
भव्यजीवः । ( सम्मत्तपरिणदो उण ) सम्यक्त्वरत्नंपरिणतः सम्यग्दर्शनमयीभूतः पुनः । किं भवति ? ( खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि ) क्षिपते विनाशयति दुष्टानि दुःखदायीनि अष्टकर्माणि ज्ञानावरणादीनि ।
कि बहुणा भणिएणं जे सिद्धा नरवरा गए काले । सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥८८॥ कि बहुना भणितेन ये सिद्धा नरवरा गते काले । सेत्स्यन्ति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यं ॥८८॥
( कि बहुणा भणिएणं) कि वहुनां भणितेन किं प्रचुरेण जल्पितेन न किमपीत्याक्षेपः । ( जे सिद्धा नरवरा गए काले ) ये किंचित्सिद्धा मुक्ति गता मोक्षं प्राप्ताः, नरवराः भव्यवरपुण्डरीका भरतसगररामपाण्डवादयः, तत्सर्वं सम्यक्त्वमाहात्म्यं जानीत यूयमिति सम्बन्धः, गते काले अतीते काले । ( सिज्झिहहि जे वि. भविया) सेत्स्यन्ति भविष्यति काले सिद्धि यास्यन्ति मोक्षं प्रायन्ति येऽपि भव्याः । ( तं जाणह सम्ममाहप्पं ) तज्जानीत सम्यक्त्वस्य माहात्म्यं प्रभावं ।
ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया ।. सम्मत्तं सिद्धियरं सिवणे वि ण मइलियं जहि ॥ ८९ ॥
ते धन्याः सुकृतार्थाः ते शूराः तेपि पण्डिता मनुजा ।. सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेऽपि नलिनितं येः ॥ ८९ ॥
विशेषार्थ - सम्यक्त्व अमूल्य माणिक्य के समान है जो जीवं निरन्तर इसका ध्यान करता है वह निकट भव्य जीव सम्यग्दृष्टि बन जाता है और सम्यक्त्व रूप परिणत हुआ जीव दुःखदायी अष्टकर्मों को नष्ट कर देता है । कर्मक्षय का प्रारम्भ सम्यग्दर्शन से ही होता है अतः पूर्ण प्रयत्न से सर्व प्रथम उसे ही प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये || ८७॥
गाथार्थ – अधिक कहने से क्या ? अतीत काल में जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं और भविष्यत्काल में जितने सिद्ध होंगे उन सबको तुम सम्यदर्शनका हो माहात्म्य जानो || ८८||
विशेषार्थ - - बार बार सम्यक्त्व के माहात्म्य का वर्णन करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं कि अधिक कहने से क्या प्रयोजन है ? अतीत काल में जितने भरत, सगर, राम तथा पाण्डव आदि श्रेष्ठ भव्यजीव मोक्षको प्राप्त हुए हैं और भविष्य काल में जो मोक्षको प्राप्त करेंगे वह सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है ऐसा जानना चाहिये ||८८||
गाथा - वे ही मनुष्य धन्य हैं, वे ही कृतकृत्य हैं, वे ही शूरवीर हैं,
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