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-६. ४४]
मोक्षप्रामृतम् तपनं, संयतो जैनो मुनिः परमोदासोनतालक्षणसंयमं सम्पन्नः, स्वशक्त्या आत्मशक्त्यनुसारेण । उक्तं च
'जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सहहइ ।
सदहमाणो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ॥ १ ॥ "शक्तितस्त्यागतपसी" इति वचनात् । ( सो पावइ परमपयं ) स प्राप्नोति स मुनिलंभते, किं तत् ? परमपदं इन्द्रधरणेन्द्रमुनीन्द्रनरेन्द्रवंदितं स्थानं परमनिर्वाणं । ( शायंतो अप्पयं सुद्धं ) ध्यायन् सन् एकाग्रतया चिन्तयन्, कं ? आत्मानं निजशुद्धबुद्धकस्वभावात्मतत्वं, शुद्धं द्रव्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहितं रागद्वेषमोहादिविवजितं कर्ममलकलङ्करहितं प्रत्यक्षतया प्राप्तमिति तात्पर्यार्थः । तिहि तिणि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परियरिओ। दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई ॥४४॥
त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेण परिकलितः । द्विदोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायति योगी ॥४४॥
विशेषार्थ-जो जैन मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे युक्त होता हुआ अपनी शक्तिके अनुसार इच्छा-निरोध रूप तपको करता है वही वास्तव में संयत है अर्थात् परम उदासीनता रूप संयम को प्राप्त है। ऐमा संयत यदि द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म से रहित अथवा रागद्वेष मोह आदिसे रहित अथवा कर्म-मल-कलंक से रहित शुद्ध-बढेक स्वभावसे युक्त निज आत्माका ध्यान करता है तो वह परम पद-इन्द्र धरणेन्द्र मनीन्द्र और नरेन्द्रोंके द्वारा वन्दित परम निर्वाण को प्राप्त होता है। तप शक्तिके अनुसार होता है क्योंकि 'शक्तितस्त्यागतपसी'-त्याग
और तप शक्ति के अनुसार होते हैं ऐसा आगम का वचन है । और भी कहा है
जं सक्कइ-जो किया जा सके उसे करना चाहिये और जो न किया जा सके उसका श्रद्धान करना चाहिये क्योंकि श्रद्धान करने वाला जोव भी अजर-अमर पदको प्राप्त होता है ।।४३॥ - गाथार्थ-तीनके द्वारा तीन को धारण कर, निरन्तर तीनसे रहित, तीनसे सहित और दो दोषों से मुक्त रहने वाला योगी परमात्मा का ध्यान करता है ।।४४॥ १. सक्कह तं कोरइ जं च ण सक्केइ तं च सहहणं ।
केवलिजिहि भणिय सहमाणस्स सम्मत्तं ॥२२॥ -दर्शनप्राभूते
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