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षट्प्राभृते
[ ६. ४५
( तिहि ) त्रिभिः मनोवचनकायै: । ( तण्णि घरवि ) श्रीन् वर्षाशीतोष्णका - लयोगान् धृत्वा । “तुआण तणाव तुम् च क्त्वायाः" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण क्त्वास्थानेऽव-आदेशः तेन धृत्वा इत्यस्य स्थाने घरवि इति प्रयोगः साधुः । ( णिच्चं ) सर्वदा सर्वस्मिन् दीक्षाकाले । ( तियरहिओ ) मायामिथ्यात्वनिदान - शल्य त्रिकरहितः । ( तह तिएण परियरिओ) तथा तेनैव त्रिकरहितप्रकारेण, त्रिकेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेण परिकरितो मंडित: । ( दोदोसविप्पमुक्को ). द्विदोषविप्रमुक्तः विशेषेण प्रकर्षेण रागद्वेषदोषरहितः । ( परमप्पा झायए जोई ) परमात्मानं सिद्धस्वरूपमात्मानं ध्यायति चितयति योगिन ध्यानवान् मुनिः । अथवा योगीति योगबलेन मनोवाक्काययोगावष्टम्भेन ।
मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो । णिम्मलसहावजुत्तो सो पावद्द उत्तमं सोक्खं ॥ ४५ ॥ मदमायाक्रोधरहितः लोभेन विवजितश्च यो जीवः ।
निर्मलस्वभावयुक्तः स प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम् ||४५ ||
( मयमायकोहरहिओ ) मदमायाक्रोष रहितः । ( लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो ) लोभेन विवर्जितश्च यो जीव आत्मा । ( णिम्मलसहावजुत्तो ) निर्मलस्वभावः रागादिरहितः परिणामस्तेन संयुक्तः । ( सो पावइ उत्तमं सोक्खं ) स जीवः
विशेषार्थ - तीनके द्वारा अर्थात् मन वचन कायके द्वारा तीनको अर्थात् वर्षा कालयोग, शीतकाल योग और उष्णकालयोगको धारण कर निरन्तर अर्थात् दीक्षाकाल से लेकर तीनसे रहित अर्थात माया मिथ्यात्व और निदान इन शल्योंसे रहित, तीनसे सहित अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से सहित और दो दोषों से विप्रमुक्त अर्थात् राग, द्वेष इन दोषोंसे सर्वथा रहित योगी - ध्यानस्थ मुनि परमात्मा अर्थात् सिद्धके समान उत्कृष्ट निज-स्वरूप का ध्यान करता है ||४४||
गाथार्थ - जो जीव मद माया और क्रोधसे रहित है, लोभसे वर्जित है तथा निर्मल स्वभाव से युक्त है, वह उत्तम सुखको प्राप्त होता है ॥४५॥
विशेषार्थ - यह जीव क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार कषायों के कारण स्वभाव से च्युत हो रहा है, इसलिये इन चारों कषायों का अभाव करके जो रागादि परिणाम से रहित होता हुआ निर्मल स्वभाव से युक्त हो गया है वही जीव कर्म-क्षयसे उत्पन्न होनेवाले, इन्द्रियसुखसे रहित देव-दुर्लभ परमानन्द रूप उत्तम सुखको प्राप्त होता है ।
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