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मोक्षप्राभूतम्
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प्राप्नोति लभते कि ? उत्तमं सोरथं कर्मक्षयसंजातं - इन्द्रियमुखरहितं इन्द्रादीनामपि
दुर्लभं सौख्यं परमानन्दलक्षणं । तथा चोक्तं
जं मुणि लहइ अनंतसुहु णियअप्पा झायंतु । तं सुहु इंदु विन वि लहर देविहि कोडि रंमंतु ॥ १ ॥ विसयकसाएहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमाणो । सोन लहइ सिद्धिसुहं जिणमुदपरम्हो जीवो ॥४६॥ विषयकषायैर्युक्तः रुद्रः परमात्मभावरहितमनाः । स न लभते सिद्धिसुखं जिन मुद्रापराङमुखो जीवः ॥४६॥ ( विसयकसाएहि जुदो ) विषयः वनिताजनानामालिंगनादिस्पर्शादिपंचेन्द्रियसुखैः कषायैश्च क्रोधमानमायालो भैः युतः संहितः । ( रुद्दो परमप्पभावरहियमणो ) रुद्रः सात्यकि महाराजपुत्रः परमात्मभावरहितमनाः परमात्मभावनायाः प्रभृष्टः । ( सो न लहइ सिद्धिसुहं ) स रुद्रो न लभते न प्राप्नोति, कि ? सिद्धिसुखं आत्मोपलब्धिसुखं । तर्हि किं लभते ? नरकदुःखं लभते ? इत्यर्थापत्तिः । ( जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो) जिनमुद्रापराङ्मुखो जीवः - जिनमुद्रां परित्यज्य भृष्टो बभूवेति भावार्थ: ।
रुद्रस्य कथा यथा - अथेह भरतक्षेत्रे विजयार्घपर्वते दक्षिणश्रेण्यां किन्नरगीत
जैसा कि कहा गया है
जंgणि - निज आत्माका ध्यान करता हुआ मुनि जिस अनन्त सुखको प्राप्त करता है उस सुखको करोड़ों देवियोंके साथ रमण करता हुआ भी इन्द्र नहीं प्राप्त कर सकता है ।
'गाथार्थ - जो विषय कषाय से युक्त है जिसका मन परमात्माकी भावना से रहित है तथा जो जिन-मुद्रासे पराङमुख - भ्रष्ट हो चुका है ऐसा रुद्रपद धारी जोव सिद्धि सुख को प्राप्त नहीं होता ||४६ ||
विशेषार्थ — स्त्रीजनों के आलिङ्गन आदि पञ्चेन्द्रियों के विषयों तथा क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय से युक्त होनेके कारण जिसका मन परमात्मा की भावना से हट गया है तथा जो जिन-मुद्राको छोड़कर भ्रष्ट हो चुका है ऐसा रुद्र मोक्ष सम्बन्धी सुखको प्राप्त नहीं होता किन्तु नरक के दुःखको प्राप्त होता है । रुद्र की कथा इस प्रकार है—
रुद्र की कथा
अथानन्तर इसी भरत क्षेत्रके विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक किन्नरगीत नामका नगर है। उसमें रत्नमाली नामका विद्याधरों का
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