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________________ -५. ४६ ] मोक्षप्राभूतम् ६०७ प्राप्नोति लभते कि ? उत्तमं सोरथं कर्मक्षयसंजातं - इन्द्रियमुखरहितं इन्द्रादीनामपि दुर्लभं सौख्यं परमानन्दलक्षणं । तथा चोक्तं जं मुणि लहइ अनंतसुहु णियअप्पा झायंतु । तं सुहु इंदु विन वि लहर देविहि कोडि रंमंतु ॥ १ ॥ विसयकसाएहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमाणो । सोन लहइ सिद्धिसुहं जिणमुदपरम्हो जीवो ॥४६॥ विषयकषायैर्युक्तः रुद्रः परमात्मभावरहितमनाः । स न लभते सिद्धिसुखं जिन मुद्रापराङमुखो जीवः ॥४६॥ ( विसयकसाएहि जुदो ) विषयः वनिताजनानामालिंगनादिस्पर्शादिपंचेन्द्रियसुखैः कषायैश्च क्रोधमानमायालो भैः युतः संहितः । ( रुद्दो परमप्पभावरहियमणो ) रुद्रः सात्यकि महाराजपुत्रः परमात्मभावरहितमनाः परमात्मभावनायाः प्रभृष्टः । ( सो न लहइ सिद्धिसुहं ) स रुद्रो न लभते न प्राप्नोति, कि ? सिद्धिसुखं आत्मोपलब्धिसुखं । तर्हि किं लभते ? नरकदुःखं लभते ? इत्यर्थापत्तिः । ( जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो) जिनमुद्रापराङ्मुखो जीवः - जिनमुद्रां परित्यज्य भृष्टो बभूवेति भावार्थ: । रुद्रस्य कथा यथा - अथेह भरतक्षेत्रे विजयार्घपर्वते दक्षिणश्रेण्यां किन्नरगीत जैसा कि कहा गया है जंgणि - निज आत्माका ध्यान करता हुआ मुनि जिस अनन्त सुखको प्राप्त करता है उस सुखको करोड़ों देवियोंके साथ रमण करता हुआ भी इन्द्र नहीं प्राप्त कर सकता है । 'गाथार्थ - जो विषय कषाय से युक्त है जिसका मन परमात्माकी भावना से रहित है तथा जो जिन-मुद्रासे पराङमुख - भ्रष्ट हो चुका है ऐसा रुद्रपद धारी जोव सिद्धि सुख को प्राप्त नहीं होता ||४६ || विशेषार्थ — स्त्रीजनों के आलिङ्गन आदि पञ्चेन्द्रियों के विषयों तथा क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय से युक्त होनेके कारण जिसका मन परमात्मा की भावना से हट गया है तथा जो जिन-मुद्राको छोड़कर भ्रष्ट हो चुका है ऐसा रुद्र मोक्ष सम्बन्धी सुखको प्राप्त नहीं होता किन्तु नरक के दुःखको प्राप्त होता है । रुद्र की कथा इस प्रकार है— रुद्र की कथा अथानन्तर इसी भरत क्षेत्रके विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक किन्नरगीत नामका नगर है। उसमें रत्नमाली नामका विद्याधरों का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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