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________________ षट्प्राभृते [७. १३-१५धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊणः भुजदे पिडं । अवरुपरूई संतो जिणमगि ण होइ सो समणो ॥१३॥ धावति पिंडनिमित्तं कलहं कृत्वा भुक्ते पिंडं । — अपरप्ररूपी सन् जिनमार्गी न भवति स श्रमणः॥१३॥ . गिहदि अदत्तदाणं पणिदा वि य परोक्खदूसेहिं । जिलिंगं धारतो चोरेण व होइ सो समणो ॥१४॥ .. गृह्णाति अदत्तदानं परनिन्दामपि च परोक्षदूषणैः। . जिनलिंगं धारयन् चोरेणेव भवति स श्रमणः ॥१४॥ उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खण्दि लिंगरूंवेण । इरियावह धारतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥१५॥ उत्पतति पतति धावति पृथिवी खनति लिंगरूपेण । ईर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥१५॥ .. पावदि-जो आहार के निमित्त दौड़ता है, कलह कर भोजन को ग्रहण करता है और उसके निमित्त दूसरे से ईर्ष्या करता है वह जिनमार्गी श्रमण नहीं है। भावार्थ-इस कालमें कितने ही लोग जिनलिङ्ग से भ्रष्ट होकर अर्घपालक हए फिर उनमें श्वेताम्बादिक संघ हए। उन्होंने शिथिलाचार का पोषण कर लिङ्ग की प्रवृत्ति विकृत कर दी। उन्हीं का यहाँ निषेध समझना चाहिये। उनमें अब भी कोई ऐसे साधु हैं जो आहार के निमित्त शीघ्र दौड़ते हैं ईर्यासमिति को भूल जाते हैं और गृहस्थ के घरसे लाकर दो चार सम्मिलित बैट कर खाते हैं और बटवारा में सरस नीरस आनेपर परस्पर कलह करते हैं तथा इस निमित्त को लेकर दूसरों से ईर्ष्या भी करते हैं सो ऐसे साधु जिनमागी नहीं हैं ॥१३॥ गिण्हदि-जो मनुष्य जिन लिङ्गको धारण करता हुआ भी बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण करता है तथा परोक्ष में दूषण लगा लगा कर दूसरे की निन्दा करता है वह चोर के समान है, साधु नहीं है। भावार्थ-दातार की इच्छा न होने पर अड़कर भिक्षा आदि को ग्रहण करना अदत्तादान है । जो साधु इस प्रकारके आहारको ग्रहण करता है और परोक्ष में दोष लगाकर दूसरे की निन्दा भी करता है वह चोर के समान है॥१४॥ उप्पदि-जो मुनिलिङ्ग धारण कर चलते समय कभी उछलता है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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