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षट्प्राभृते
[ ६. ११-१२
मिच्छाणाणेस रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो । मोहोदएण पुणरवि अंगं सं मव्णए मणुओ ॥ ११ ॥ मिथ्याज्ञानेषु रतः मिथ्याभावेन भावितः सन् । मोहोदयेन पुनरपि अङ्गं स्वं मन्यते मनुजः ।। ११ ।।
( मिच्छाणाणेषु रओ) मिथ्याज्ञानेषु रतोऽयं मनुजो जीवः । ( मिच्छाभावेण भाविओ संतो) मिथ्यापरिणामेन कुगुरुकुदेवभक्त्या भावितो वासितः सनः । ( मोहोदएण पुणरवि ) मोहोदयेन मिथ्यामोहस्य त्रिविधस्योदयेन विपाकेन, पुनरपि भूयोऽपि । ( अंगं सं मण मणुओ ) अंगं शरीरं, स्वमात्मानं मन्यते जानाति, मनुज मनुष्यो मिथ्यादृष्टिजीव इत्यर्थः ।
जो देहे णिरवेक्खो णिहंदो णिम्ममो णिरारम्भो । आवसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥ १२॥ यो देहे निरपेक्षः निर्द्वन्द्वः निर्ममः निरारम्भः । आत्मस्वभावे सुरतः योगी स लभते निर्वाणम् ॥ १२ ॥
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चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः । भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिक कर्म तस्यापि । इस पद्य में जीवके रागादि रूप परिणमन में पौद्गलिक कर्म को निमित्त कारण माना है । एकान्त से मात्र उपादान का पक्ष लेकर वर्णन करनेसे लोक- प्रचलित-निमित्त नैमित्तिक भाव तथा शास्त्र-वर्णित षट्द्रव्योंका उपकार्य उपकारक भाव विरुद्ध जान पड़ने लगता है । अतः अनेकान्त की दृष्टि से ही पदार्थ का वर्णन करना संगत है ॥ १०॥
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गाथार्थ - यह मनुष्य मोहके उदय से मिथ्याज्ञान में रत है तथा मिथ्याभाव से वासित होता हुआ फिर भी शरीर को आत्मा मान रहा है ॥११॥
विशेषार्थ - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति के भेदसे मोहके तीन भेद हैं । इस तीन प्रकारके मोहके उदयसे यह जीव मिथ्याज्ञानमें रत हो रहा है - मिथ्याशास्त्रों के अध्ययनादि में प्रवृत्त हो शुद्धबुद्धेक-स्वभाव आत्मज्ञान से विमुख हो रहा है तथा कुगुरु कुदेव आदि की भक्ति रूप मिथ्या परिणाम की भावना से वासित होता हुआ शरीर को फिर भी आत्मा मान रहा है अर्थात् इस जीवकी मिथ्याबुद्धि हट नहीं रही है।
गाथार्थ - जो शरीर में निरपेक्ष है, द्वन्द्व-रहित है, ममता रहित है,
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