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-५.५३] भावप्रामृतम्
३७७ आत्मनि मोक्षे शाने वृत्ते ताते च भरतराजस्य ।
ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरा विद्यते ब्रह्मा ॥१॥ अन्यस्मिन् दिने चर्यावेलायां व्याधिपीडितक्षुल्लकरूपेण रेवतीगृहसमीपप्रतोलीमार्गे मायामूर्च्छया पतितः। रेवती तदाकर्ण्य भक्त्योत्थाप्य नीत्वोपचारं कृत्वा पथ्यं विधापयितुमारेभे । स च सर्वमाहारं भुक्त्वा दुर्गन्धवमनं चकार तदपनीय हा! विरूपकं पथ्यं मया दत्तमिति रेवतीवचनमाकर्ण्य प्रतोषान्मायामुपसंहृत्य तां देवीं वन्दित्वा गुरोराशीर्वादं पूर्ववृत्तान्तं च कथयित्वा लोकमध्ये तस्या अमूढदृष्टिमुच्चैः प्रशस्य स्वस्थानं चन्द्रप्रभा जगाम । वरुणमहाराजस्तु शिवकीर्तये निजपुत्राय राज्यं दत्वा दीक्षामादाय माहेन्द्रकल्पे देवो बभूव । रेवती तु तपः कृत्वा ब्रह्मकल्पे देवी बभूव । इति श्री भावप्राभृते भव्यसेनमुनिकथा समाप्ता।। तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुड जाओ ॥५३॥ तुषमाषं घोषयन् भावविशुद्धो महानुभावश्च । नाम्ना च शिवभूतिः केवलज्ञानी स्फुट जातः ।। ५३ ॥
आत्मनि-ब्रह्मा इस प्रकार का शब्द आत्मामें, ज्ञान में, चारित्रमें तथा भरतके पिता भगवान वृषभदेवमें प्रसिद्ध है और कोई दूसरा नहीं है। : दूसरे दिन वह क्षुल्लक चर्याके समय एक बीमार क्षुल्लक के वेषमें रेवती के घर के समीप निकला और गोपूरके मार्गमें माया-मयी मासे गिर पड़ा। यह सुन रेवती रानी भक्ति से दौड़ी गई और उठाकर तथा सेवा सुश्रूषा कर पथ्य कराने के लिये तत्पर हुई। क्षुल्लक ने सब प्रकार का आहार कर दुर्गन्धित वमन कर दिया। उस वमन को दूर कर रेवती कहने लगी हाय! मुझसे कोई अयोग्य पथ्य दिया गया है। रेवती के वचन सुन संतोषसे मायाको संकोच कर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक ने देवीकी वन्दना की तथा गुरुका आशीर्वाद और पूर्व वृत्तान्त कह कर लोगोंके मध्य उसके अमूढदृष्टि अङ्ग की खूब प्रशंसा को। तदनन्तर वह अपने स्थान पर चला गया। वरुण महाराज शिवकीति नामक निज पुत्रके लिये राज्य देकर दीक्षा धारण कर महेन्द्र स्वर्ग में देव हुए और रेवतो रानी तप कर ब्रह्मस्वर्ग में देव हुई। - इस प्रकार श्री भावप्राभृत में भव्यसेन मुनिकी कथा समाप्त हुई।
गावार्ष-भावसे विशुद्ध शिवभूति मुनि, तुषमाष शब्द का बार बार
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